Saturday, November 19, 2011

तहज़ीब

रफ़ात तहज़ीब के बालों में तेल दे रही थी. उसे तहज़ीब के बाल बे-इंतहा पसंद थे.तहजीब के बालों की खूबसूरती समझाने के लिए तहज़ीब के बाल "घुंघराले" कहे जा सकते हैं लेकिन सिर्फ इतना कह देने से इज़हार-ए-खूबसूरती कुछ कच्ची सी रह जाती है. ऐसे मौकों पर मुझे तमाम मर्तबा लगता है की ज़बान ने इज़हार करने के लिए सटीक शब्द और तरीके अभी तक ईज़ाद नहीं किए हैं.

रफ़ात को उसके बाल, बाल कम पहेली जादा लगते थे. वो अक्सर उन्हें घंटे भर तेल देती रह जाती थी. कुछ-कुछ सोचती रहती थी और उनके लच्छे बनाकार उँगलियों के चारों और घुमाती रहती थी. तकरीबन वैसे ही जैसे फ़िल्मों में दिखाते हैं - जब हीरोइन अपने हीरो से बात करते हुए टेलीफ़ोन के तार को अपनी उँगलियों पर लपेट कर उलझाती रहती है, सुलझाती रहती है.

रफ़ात ने हौले से दोनों घुटनों के बीच में तहज़ीब का सर टिकाया हुआ था, तहज़ीब शायद मालिश करवाते हुए सो ही गई थी. उसका नाम तहज़ीब था तो ज़रूर लेकिन तहज़ीब उसमें नाम भर की भी नहीं थी. पता नहीं माँ- बाप ने नाम कितना सोच के रखा था पर लडकी में बित्ते भर की भी तहज़ीब नहीं थी. उसका अंदाज़-ए-बयान कुछ ऐसा था जैसे की सलीके और अदब को सिरे से लटका कर उलटा टांग दिया गया हो. लेकिन मेरा यकीन मानो, या फिर मानो-या-ना-मानो (मेरी बला से), बूझो-तो-ही-जानो, कि, तहज़ीब से हसीन शरारत कुदरत ने सदियों से नहीं की होगी.

कहते हैं की अफ़गान लडकियां बला की खूबसूरत होती हैं. तहज़ीब को सिर्फ खूबसूरत नहीं का जा सकता था.
शब्द में जान तो है लेकिन खनक नहीं है.
या फिर 'हसीन' कह लो लेकिन इस शब्द में खनक तो है लेकिन धनक नहीं है.

ख़ैर ...ज़बान को उतना भी तकल्लुफ़ और तकलीफ़ ना दूं.

तहज़ीब की उम्र ६ साल की थी. रफात की दो और बेटियाँ थी. बेनाफ्शा और बेहास्ता. बेनाफ्शा ११ की थी और बेहास्ता ९ की. इस लिहाज़ से तहज़ीब रफ़ात की सबसे छोटी बेटी थी.

हफ़ीज़ और रफ़ात ने काफ़ी सोचने और समझने के बाद ये तय किया था की तहज़ीब को लड़का बनना पड़ेगा. तब तक के लिए, जब तक की रफ़ात एक लड़के को जन्म नहीं देती. ये 'सोचना और समझना' जादा देर तक नहीं चला था. हफ़ीज़ ने कहा था की "बचापोशी" के अलावा अब कोई और तरीका नहीं है. ऐसा करने से ख़ुदा जरुर ख़ुश होगा. बरक्कत होगी. लड़कियों को उनका भाई मिलेगा और घर को उसका वारिस. रफ़ात ने भी मना नहीं किया था क्योंकि अफ़गानिस्तान में "बचापोशी" एक बेहद आम बात थी. और ख़ास भी. ख़ास इसलिए क्यूंकि बचापोशी ख़ुदा को ये बताने के लिए बहोत जरुरी था की घर में एक लड़के की कितनी जादा उम्मीद,आस और ज़रूरत है.

"कल तेरे बाल कटा दी जाएँगे", रफ़ात ने कहा.

"क्यूँ"

"कल से तू बाहर खेलने जा सकती है और तुझे लड़कों की पोशाकें पहननी हैं."

तहज़ीब ने दुबारा "क्यूँ" नहीं पूछा. उसकी आँखें चमक गईं. गोल-गोल आँखें. बड़ी-बड़ी बिल्लोरी आँखें.

"मतलब मैं कल से टी-शर्ट पहन सकूंगी ..."

"हाँ"

"और मैं .. लड़कों से लड़ाई भी कर सकूंगी"

"हाँ"

"फ़ुटबाल ?"

"हाँ"

"क्रिकेट ?"

"हाँ"

"तो तुम रो क्यूँ रही हो ?"

"नहीं मैं रो नहीं रही हूँ. कल से बेनाफ्शा और बेहास्ता को बाज़ार ले जाने की ज़िम्मेदारी तेरी होगी और उन्हें जब भी बाहर जाने की ज़रुरत होगी तो तू उन्हें घर के लड़के की तरह लाया-जाया करेगी "

तहज़ीब तुरंत उछल कर गुसलखाने की तरफ भागी. आज खड़े होकर 'सू-सू' करने का मौका था. वैसे वो पहले भी खड़े होकर ही 'सू-सू' किया करती थी लेकिन जब रफ़ात ने उसे कस कर झापड़ मारा था तो उसने ऐसा करना छोड़ दिया था. रफ़ात ने चिल्ला कर कहा था की पता नहीं क्यूँ उसने उसका नाम तहज़ीब रख़ दिया था जबकि तहज़ीब तो उसमे नाम भर की भी नहीं थी (या बस नाम भर को ही तो थी)

तहज़ीब सोच रही थी की अब जब उसका छोटा भाई आएगा तो वो दोनों 'सू-सू' करते हुए पेंच लड़ा सकते हैं और रेस भी लगा सकते हैं. शीशे के सामने खड़े होकर उसने बालों से मूछें बनाकर देखा तो वो पक्का पठान लग रही थी.मालिक भाई की तरह. अगर दाढ़ी और होती तो वो एकदम बादशाह खान की तरह लगती.

तहज़ीब ने एक हाँथ से मूछ संभाली और दुसरे को कमर पर रक्खा. थोड़ा सा आगे की तरफ झुक कर बोली, "ओये पाशा, बादशाह खान बेनज़ीर को छुड़ा कर तो लाएगा ही और तुझे उसी तरह मारेगा जैसे हबीबुल्लाह को मारा था.और इस बात का ख़ुदा गवाह है. क्या समझा... हाएं "


रात में रफ़ात ने हफ़ीज़ से फिर से पूछा, " इस बार लड़का ही होगा ना ?"
हफ़ीज़ ने उसको उसके दोनों गालों को अपनी हथेलियों के बीच में रक्खा, माथे पर एक छोटा सा चुम्बन हिफाज़त से रख़ दिया और कहा, "अल्लाह सब देख रहा है. कायनात में कोई भी इतनी चाहत दिल में सहेज लेता है तो ऊपर से इनकार नहीं आता. मेहर के घर में दो-दो लड़के हुए थे और सकीना के घर में भी लड़का ही हुआ था."
रफ़ात ने आखें बंद कर ली. जैसे की दोनों आँखों से 'आमीन' कहा हो.
हफ़ीज़ ने खिड़की से बाहर देखा तो चाँद निकल आया था जैसे की किसी ने 'क़ुबूल है' कहा हो.

अगले दिन हफ़ीज़ ने जैसे ही तहज़ीब को आवाज़ दी तो वो कूदते फांदते कमरे से बाहर आई. हफ़ीज़ ने साइकल निकाली तो तहज़ीब को कुछ याद आ गया. फ़ौरन उलटे पांव दौड़ पड़ी और गुसलखाने में घुस गई.
फिर से मूछे बनाकर देखा ..
...मुस्कुराई ..
पाशा से फिर से कहा की वो बेनज़ीर को छुड़ा कर लाएगा और उसे भी वैसे ही मारेगा जैसे हबीबुल्लाह को मारा था, और इस बात का ख़ुदा गवाह है"
थोड़ी देर तक कुछ सोचा जैसे कि किसे ने 'क्या क्या करना है' की लिस्ट बनाकर रक्खी हुई हो..

हफ़ीज़ ने उसे मालिक भाई की दूकान पर ले जाकर छोड़ दिया.
"थोड़ी देर में वापस आता हूँ. बाल एकदम छोटे-छोटे काट देना."
उस्मान ने आँखों से कुछ-एक सवालात करने की कोशिश तो की लेकिन हफ़ीज़ की आँखों ने कन्नी काट ली. उस्मान समझ गया.

हफ़ीज़ आखें चुरा कर चला गया.


...



लड़की मलिक भाई कि कुर्सी पर घंटे से बाल कटवाने को जमी हुई थी. उसे सख्त हिदायत दी गई थी कि वो हिलेगी नहीं और बाल कटवाने में मलिक को परेशान नहीं करेगी लेकिन चंचलता उसके भीतर ऐसे कुल-बुलाती थी कि ना निकाली जाए तो लड़की अपनी ही एनर्जी से ऐसे बुद-बुदाने लगे जैसे कि सोडे कि बोतल को तनिक सा हिला के बस छोड़ दिया गया हो.... या फिर... प्रेशर कुकर में मटन डाल के सीटी लगा दी गई हो. दोष इसमें तहज़ीब का नहीं था. बनाने वाला का था. सात आसमान दूर बैठे कलाकार ने अपनी बोरियत दूर करने के लिए तहजीब को बनाया था.

"मलिक भाई .. मैं सोच रहा था कि मेरी मुंडी सीधी है कि नहीं ? मुझे हमेशा लगता है कि मेरी मुंडी टेढ़ी है इधर को? इसको सीधा कर दो ना मलिक भाई ..
ए मलिक भाई ..एक बार चटका दो ना. सब चिढ़ाते हैं मुझको."

"सीधे बैठो .. नहीं तो लगा देंगे उस्तरा अभी.. "

"मलिक भाई कर दो न, छोटा सा काम ही तो बोल रहा हूँ तुमको. सब मुझे "ओए बारह पांच - अबे ओए बारह पांच" कह के बुलाते हैं"

"ठीक करते हैं. तू इसी लायक है"
लेकिन बारह पांच क्यूँ कहते हैं तुझे ?"

"अरे .. घड़ी में जब बारह बज के पांच मिनट हो जाता है तो वो ऐसा दिखता है ना.. मेरी टेढ़ी मुंडी की तरह !"

"क्या बोल रही है तू .. मेरा दिमाग मत खा. मैं बहोत डेंजर आदमी हूँ. सीधे बैठ और मुझे बाल काटने दे. नहीं तो दफा हो यहाँ से. मुझे परेशान मत कर. मेरा उस्तरा हिल गया ना तो काम हो जाएगा तेरा. "

"क्यूँ मलिक भाई ? तुम मेरा मुंडी काट दोगे गुस्सा हो के ? क्या यार.. मैं तो तुमको दोस्त समझता था. सब लोग ठीक ही कहते हैं तुम्हारे बारे में "

तहज़ीब ने रात भर में ही लड़के की तरह बात करना सीख लिया था.

मलिक भाई ने सामने के आईने में तहजीब की शक़ल देखी, गुस्से में मुह बिचका लिया था, ऐसा लग रहा था जैसे की एक समोसा सा छन रहा था. उसे हंसी आ रही थी. लेकिन उसको पता था कि तहजीब की बात में उलझने से अच्छा है कि वो चुप-चाप बाल काट के दफा करे उसको ...पर तहज़ीब उसको बाल काटने ही नहीं दे रहा था. बार बार अपने एक गाल पर अपने हथेली सटा कर दूसरे हाँथ से अपनी मुंडी सीधा करने कि कोशिश कर रही थी. कभी उसको लगता था कि अब सीधा हुआ है मामला , तो फिर अगले ही पल लगता था कि फिर टेढ़ा हो गया साला. परेशान हो के तहज़ीब ने कहा,

"फिर काट ही दो ना मलिक भाई, जब ये साली मुंडी सीधी ही नहीं होती है तो उस्तरे से काट ही दो"

मलिक भाई कि हंसी छूट गई. बोले,
"अरे क्यूँ परेशान होती है मेरी बच्ची , थोड़ी देर सीधे बैठ जा, फिर मैं पक्का रिपेयर कर देगा तुझको. तुझे भी और तेरी मुंडी भी."



दोनों ने शीशे में एक दूसरे को देखा. जैसे कि फ्रेम में लगी हुई कोई बहोत प्यारी सी तस्वीर. जो कि तुम्हारे सबसे हसीन लम्हों को फ्रेम में जड़ के जमाई गई हो. दोनों मुस्कुराए. मलिक भाई ने प्यार से तहज़ीब का सर चूमा और हाँथ फिराया

..

सोडे कि बोतल ऐसे शांत हो गई जैसे कि ढक्कन खोल दिया गया हो. मलिक भाई ने बाल काटते-काटते उसका ताज़ा-ताज़ा-शांत चेहरा आईने में देखा तो उस पर एक बाप की ममता की नई फसल हल-हला उट्ठी थे. लेकिन तहज़ीब ज्यादा देर शांत कहाँ रख सकती थी खुद को.

"मलिक भाई .. मैं सोच रहा था कि जब तुम इतने अच्छे हो तो लोग तुम्हारे बारे में ऐसे-ऐसे क्यूँ बोलते हैं"

मलिक भाई ने ध्यान नहीं दिया. वो अपने हाँथ से लगाम छूटने नहीं देना चाहते थे. बड़ी मुश्किल से तो हाँथ आई थी.

"बोलो ना मलिक भाई, तुमने पाशा की गर्दन में उस्तरा क्यूँ गड़ा दिया था?"

"कौन पाशा? किसके उस्तरा गड़ा दिया था मैंने ?", मलिक भाई सर खुजाते हुए बोले.

"अच्छा .... पाशा! "

"हाँ मलिक भाई ... पाशा... सब कहते हैं की तुमने पाशा की गर्दन में उस्तरा गड़ा दिया था गुस्से में ..."

"अच्छा अगर जो मैंने तेरे को पाशा की कहानी सुनाऊंगा तो तू चुप चाप बाल कटवा लेगा ?... बिना मेरी जान खाए ?"

"हाँ मलिक भाई .. सुनाओ ना कहानी ..."

"अच्छा तो सुनो, पाशा काबुल का बहोत बड़ा डाकू था. पूरा काबुल उससे थर-थर कांपता था. एक बार वो मेरी दूकान में बाल कटवाने आया.
मैंने बोला की ठीक है जी, अपने को क्या लेना देना. हमारा काम है बाल काटना, सो हम काट देंगे. डरते हम किसी के बाप से भी नहीं हैं औ धार हमारे उस्तरे में बराबर थी...."

"तुम एकदम नहीं डरे मलिक भाई ?"

"अरे नहीं ना रे .. तू सीधे बैठ के सुन ना.....

-

हाँ ..तो हुआ ये की दूकान में सबकी तो फट गई, लेकिन हम बोले की हमको लेना एक न देना दो. काम है हमारा बाल काटना, वो हम कर देंगे.
बैठे पाशा इसी कुर्सी पर .. जिसपे अभी तुम बैठी हुई हो. बगल में अपनी बन्दूक टिकाई दो नाल की ... यहीं जहाँ तुमने हाँथ रक्खा हुआ है ..
जब हम पाशा की मालिश करने लगे तो वो बड़ा खुश हो गया. हमको अपनी जिंदगी की तीन-पांच सब बताने लगा.
उन्होंने हमको बताया की साहब हमने डकैती बचपन से ही शुरू कर दी थी. जब हम छह साल के थे तब से. घर में खाने को एक दाना नहीं होता था. सब भूखों मरते थे लेकिन हमको ये बात बर्दाश्त न था. हम जी भर के चुराते थे और खाते थे और मोटे होते थे . धीरे धीरे हमारे शरीर में हांथी भर का बल आता गया. फिर हमने सारा काम बन्दूक की नाल पर करना शुरू कर दिया"

मालिक भाई मैं भी छः साल का हो गया हूँ. मैं खड़े हो कर 'सू-सू' कर सकता हूँ और फ़ुटबाल भी खेल सकता हूँ"

तहजीब को अनसुना करते हुए मालिक भाई बात आगे बढाते हुए बोले, ...
"हाँ तो फिर आगे पाशा ने हमसे कहा कि एक बार की बात है की हमने अपने पड़ोसी की गाय छिना ली सरे आम !!
हमारा कोई कुछ उखाड़ भी ना पाया. उखाड़ता भी तो क्या .."

तहजीब उनकी बात इतने ध्यान से सुन रही थी कि मलिक भाई के लिए तहज़ीब के बाल काटना अब आसान हो चला था, वो एक टक सामने के शीशे में मालिक भाई को देख रही थी और मालिक भाई उसके घुंघराले बाल काट रहे थे

मालिक भाई ने कहानी आगे बढाई...

-

"हाँ तो फिर हमारा माथा ठनका...
हमने उनसे पूछा की पाशा जी .. आपने जो गाय चुराई थी वो क्या जर्सी नसल की थी ?
पाशा ने जवाब दिया, "हाँ"
हमने फिर से पूछा की पाशा वो दिन में कितना लीटर दूध देती थी ..
पाशा ने जवाब दिया "बीस लीटर"
फिर हमने कहा की पाशा जी कहिए तो दाढ़ी भी बना दें आपकी .. बाल एकदम चीमड़ हो गए हैं ...वो बोले की ठीक है यार बना दो ...
तो फिर हम अपना उस्तरा निकाले ..

धीरे धीरे जब उनकी दाढ़ी काटे तो कुछ कुछ शक़ल साफ़ दिखना शुरू हुई...

फिर हम मूछ भी बनाए....

शकल एकदम साफ़ हुई ...

ये तो वही पाशा था ...

... ये तो वही पाशा था जो दस बरस पहले हमारे वालिद से उनकी गाय छीन कर ले गया था. उस समय तो हम बच्चे थे .. कुछ कह ना सके .. आज इसकी गर्दन हमारे हाथ और हमारे उस्तरे के बीच में है ...तो आज इसे नहीं छोड़ेंगे ...बस... घुसा दिया उस्तरा धीरे धीरे ... जैसे मक्खन में में गरम चाक़ू घुसाए हों .. पाशा का वहीँ हो गया इंतकाल

-

ऐसा कहते हुए उन्होंने तहजीब की आखिरी घुंघराली लट भी उस्तरे से काट कर जमीन पर गिरा दी.
तहज़ीब ने बड़ी मुश्किल से गले में अटका हुआ थूंक गटका... बड़ी मुश्किल से हलक के पार गया.
तहज़ीब ने पूछा, "
"तो फिर क्या आपने उसको बिना कुछ कहे ही उसका काम तमाम कर दिया ...?"

-"अरे नहीं रे ... सबक देना तो बहुत जरुरी था ...मारने से पहले हम उसको बताए की बेटा तुम बहुत बड़े गलती कर दिए हो बचपने में ...तुम होगे कहीं के बहुत बड़े डाकू, लेकिन मलिक भाई की एंटी में हाँथ न डालना था तुमको ..."
और बस .. काम तमाम कर दिए उसका .."

कहानी ख़तम होते होते तहज़ीब के बाल भी कट गए थे. मालिक भाई ने चैन की सांस ली. तहजीब आँखें फाड़-फाड़ के उनको देख रही था.

"मलिक भाई ... तुम तो सही में बहोत डेंजर आदमी हो."

मलिक भाई मना नहीं कर सके.

बेशक़ मलिक भाई बेहद डेंजर आदमी थे.

पाशा तो कहानी था लेकिन तहज़ीब सच्चाई थी

पाशा का तो पता नहीं ....मलिक भाई ने तहजीब नाम की लड़की को उस्तरे से ज़रूर कतल किया था एक लड़का बनाने को. बचापोशी के नाम पर ....एक और लड़की को.

अफगान लडकियां बला की खूबसूरत होती हैं .

लेकिन मलिक भाई को पता था की तहज़ीब उसके पास कुछ चार पांच बरस तक ही बाल कटवाने आएगा. उसके बाद जब वो एक औरत जैसा दिखना शुरू हो जाएगा तो उसे फिर से बाल कटवाना बंद करना पड़ेगा. अचानक से एक दिन उसे बता दिया जाएगा की वो एक लड़का नहीं है.. लड़की है. तहज़ीब अपनी बिल्लोरी आँखों से कुछ एक सवालात करेगा लेकिन कोई आमीन नहीं कहेगा,

"क़ुबूल है" नहीं कहेगा.

अक्सर उस्मान भाई सोचते थे की निक़ाह होने के बाद ये 'बचापोश' लड़के लड़कों से शादी करके बसर कैसे करते हैं. जब निक़ाह की पहली रात, पहली दफ़ा उनको एक लड़का छूता होगा तो ये लड़के कैसे सिकुड़ जाते होंगे ? सिकुड़ कर गठरी बन जाते होंगे ?

या फिर नहीं .. ?

असल में हैं तो लड़की ही ...

या फिर नहीं ही हैं ?

फिर मलिक भाई ने सोचा की एक-एक न एक दिन खड़े होकर सू-सू करने की आदत चली ही जाएगी.

Sunday, January 23, 2011

परवाज़


CHAPTER ONE - 'अजूबा, गया प्रसाद और सुपर कमांडो ध्रुव'

नानू के लिए ये वाला सन्डे अच्छा भी गया और बुरा भी. बुरा ये हुआ की नानू की जगह, सुबू से मिलने अजूबा आया था, हाँ..वही...बहारिस्तान का रखवाला...मूवी वाला.सुबू उसका सबसे अच्छा दोस्त था.लेकिन नानू की समझ से बाहर था की वो उससे मिलने क्यूँ नहीं आया? अजूबा काले कपड़े में सफ़ेद घोड़े पर आया तो एक झटके में तो सुबू की सांस ही अटक गयी थी. ख़ैर.. सुबू डरा नहीं ..बातचीत हुई ...
दोनों पहाड़ी पर गए, किला दिखाया.. स्कूल दिखाया ..उसने वो घर भी दिखाया जो नानू और सुबू ने चितकबरे पिल्ले के लिए बनाया था. नानू को इस बात से रोमांच भी हुआ की अजूबा उसका बनाया हुआ घर देख कर खुश हुआ होगा, लेकिन कहीं न कहीं उसको ये भी लग रहा था की सुबू ने उसका नाम लिया भी होगा या नहीं? उसने बताया होगा, या नहीं, कि , टाट और मिट्टी से मजबूत घर बनाने की तरकीब नानू ने ही भिड़ाई थी. अगर वो बताता तो अजूबा शायद कभी उससे भी मिलाने आ जाए, क्यूंकि कमजोरों का दोस्त वो भी है, और नानू भी. उसे भी जानवर पसंद हैं, और अजूबा को भी. तभी वो घोड़े को अपना भाई बोलता था और नानू चितकबरे पिल्ले को.

सुबू ने अजूबा को वो बबूल का पेड़ भी दिखाया जिस पर पेशाब करने से गया प्रसाद को जिन्न चढ़ गया था. सुबू ने अजूबा को बताया की उस दिन के बाद से गया प्रसाद रोजाना अपने दरवाजे से पेड़ तक लोटते-लोटते जाता है और जिन्न के सामने उठक-बैठकी करता रहता है. उसकी ज़िंदगी इस क्रम में गोल-चक्कर फंस गई है. और वो गोल चक्कर तभी टूटेगा बारिश से बबूल के पेड़ का एक एक काँटा धुल के वापस साफ़ हो जाएगा. तीन महीने से बारिश नहीं हुई थी और बादलों का मिजाज़ भी कुछ ठीक नहीं नज़र आ रहा था.

अजूबा सुबू को बच्चा समझ कर उसकी बात पर हँस दिया. बस सुबू का माथा ठनक गया..ठनकने वाली बात थी भी ..
ये राज़ उसके अलावा सिर्फ नानू को पता था, और उसके बाद उसने भरोसा कर के अजूबा को बताया था, बिना 'बाई-गौड' की कसम दिए. दोनों के बीच बहुत लड़ाई हुई, कभी ये भारी तो कभी वो भारी, लगता था की दोनों में जीतेगा कौन इसका नतीज़ा निकलेगा ही नहीं. सुबू अजूबा से जीत ही नहीं सकता था अगर नानू ने उसे अजूबा की कमज़ोरी ना बताई होती, सुबू ने अजूबा को उसके कंचों पर फैट मारा और अजूबा उठ नहीं पाया.

नानू दुखी था की अजूबा उसके बताए राज़ की वजह से हार गया, और दूसरा, वो उससे मिलने क्यूँ नहीं आया !!

ख़ैर कुछ अच्छी बातें भी हुई.
मसलन :

-उसने रेल की पटरी पर जो सिक्का रक्खा था वो चुम्बक बन गया था,
नानू का ख़ुद का बनाया हुआ चुम्बक.

-चितकबरा पिल्ला जो परसों ईंट और टाट के बनाए घर से भाग गया था वो आज वापस लौट आया था. आते ही नानू के पैर चाटने लगा.आई ने सुबह ही उसको डांटा था की उसके पैर जंगलियों की तरह हो गए हैं, नहा ले, और फिर भी, चितकबरा पिल्ला उसके पैर चाट रहा था. उसकी आँखों से रोमांच का आंसू गिरा था, कहना मुश्किल था की आंसू रोमांच का था, या ममता का, या फिर ख़ुशी का. उंगली पर लेकर करीब से देखते तो शायद अंदाजा होता की उसमे नमकीन के अलावा मिठास किस बात की थी.

-गणित की किताब के पन्नों के बीच में उसने जो पंख दबाया था, उसने एक बच्चा दिया था. एक बड़े पंख से तीन छोटे-छोटे पंख निकले थे. उसका जी करता था की यही सारे पंख अपने बाज़ू में बांधकर उड़ जाए और सारी दुनिया को बता दे की पन्नों के बीच में पंख दबाने से बच्चे निकलने की बात झूठी नहीं है, और उसे मूर्ख समझने वाले लोग उसकी उड़ान को ऐसे देखते जैसे नागराज की कलाई से सांप निकलता देख कर सबका मुह खुला का खुला रह जाता है.

-ध्रुव की कॉमिक्स 'ख़ूनी खिलौना' रिलीज़ हुई थी, और तौसी की रानी ने उसके बेटे 'टनी' को जनम दिया था, उसे ऐसा लगा कि उसका भाई दुनिया में आया हो. अपनी नीली पैंट और पीली बुशर्ट पहन कर वो घंटों घूमा था. अपनी बहन को 'बौना-वामन' बना कर उसने घंटों दौड़ाया था. बदले में ये तय हुआ था की अगली बार वो 'ग्रैंड मास्टर रोबो' बनेगा और उसकी बहन 'ध्रुव' बनेगी.

लेकिन...
...

अजूबा उससे मिलने क्यूँ नहीं आया ? अजूबा का सबसे अच्छा दोस्त तो नानू ही था ! और सुबू को तो पता ही नहीं था अली और अजूबा एक ही इंसान निकलेंगे. जबकि उसने सुबू को पहले ही बता दिया था की अली और बहारिस्तान का मसीहा अजूबा एक ही इंसान हैं.


CHAPTER TWO - 'चुम्बक, स्कोर कार्ड और महेश मोटा'

अगले दिन स्कूल में, इससे पहले की सुबू उसको अजूबा और उसकी फाईट की कहानी आगे सुनाता, नानू ने उसे अपना चुम्बक दिखाया.

"अबे ये क्या है ?"
"फट गई !! चुम्बक साले!!"
"कहाँ से पाया बे?"
"मैंने ख़ुद बनाया है , ट्रेन से"
"क्या बात कर रहा है नानू, ट्रेन से चुम्बक कैसे बनता है, गोली बाँध रहा है साले !"
"गोली तो तू बांधता है साले, मैं नहीं मानता की अजूबा तेरे से मिलने आया था, बता ज़रा कि बहारिस्तान का सबसे बड़ा शैतान कौन है ?"
"अबे तू बुरा मत मान दोस्त. ये चुम्बक से क्या क्या कर सकते हैं?"
"अबे साइकल, मटकी, लड़की, कुछ भी खींच सकते हैं इससे!! फ़रिश्ते मूवी में नहीं देखा था !! उसमे धर्मेन्द्र और विनोद खन्ना चुम्बक से कितना मचाते हैं!!"
"अबे सही बे..."
"तुझे एक ख़ास बात बताता हूँ, इस चुम्बक का एक टुकड़ा अगर दुसरे हिस्से से अलग कर दोगे, तो मरने से पहले दोनों कहीं से भी एक दुसरे को खोज के चिपक जाएंगे"

सुबू का चेहरा आश्चर्य से एक इंच चौड़ा हो गया था, भौंहे कानों तक तन गईं थी और वो वही हरकत कर रहा था जो वो अक्सर हैरानियत में करता था... थूंक गुटकते हुए उसने पूछा...
"वैसे ही जैसे इच्छा-धारी नागिन मरने से पहले अपने नाग को खोज लेती है"

"हां-हां..वैसे ही.. सेम कांसेप्ट नहीं है, लेकिन ..हाँ काफी कुछ वैसे ही"

अजूबा को हराने के बाद भी सुबू नानू से पिछड़ता जा रहा था..
इस बार उसने थूंक नहीं गुटका.. चेहरे पर अथॉरिटी और रहस्य का मिश्रण लेप कर भारी आवाज में बोला ..

"भाई, एक बात मैं भी बता रहा हूँ, प्लीज़ किसी और को मत बताइयो, बाई-गौड का कसम खा पहले"

नानू ने चालाकी से 'बाई-गौड' की जगह 'बाई-गोट' का कसम बोल दिया. वो हमेशा ही ये चालाकी करता था .आज वो एक बालिश्त भी गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहता था, कि सुबू उससे ज़्यादा कलाकार लौंडा साबित हो जाए. प्लानिंग सही काम कर रही थी. मास्टर प्लान परत-दर-परत अपना असर दिखा भी रहा था. उसने सबह ही ध्यान से चुम्बक अपने बस्ते में डाल लिया था, ताकि स्कूल पहुँचते ही स्कोर-कार्ड 1 - 0 से, 1 -1 हो जाए. चुम्बक ने अपना असर दिखाया भी, और, वो ये बात देख भी सकता था. सुबू का चेहरा उतर गया था. नानू उसे एक ज़माने से जानता था. सुबू जब भी निरुत्तर होता था तो वो गांड खुजाने लगता था. नानू ने चेक किया, उसकी उंगलिया खाकी पैंट खुरच रह़ी थीं.

"हाँ बता.. क्या बात है ?"
"अबे ... अगर नाग-पंचमी को किसी को सांप काट ले तो वो भी इच्छा-धारी सांप बन जाता है..."
नानू एक मिनट के इए सुबू को अवाक देखता रह गया..क्यूंकि कायदे से बात थी तो सही. बात निराधार नहीं थी, लॉजिक था...सौलिड लेकिन आज बात मानने का दिन था ही नहीं.
"अबे इच्छाधारी सांप होने में ऐसा क्या भोकाल है ? दुनिया का सबसे बड़ा इच्छाधारी सांप नागराज है, और वो ध्रुव से हार जाता है"
"घंटा !! ऐसे तो मैं भी कह सकता हूँ की परमाणु से बड़ा तेज कोई नहीं है. अबे हर हीरो की अलग ताक़त है, आज तू हर बात पर मत भिड़ मुझसे"

अब ये ऐसा नाज़ुक मौका था जहां पर नानू को रोक पाना मुश्किल था. वो कॉमिक्स खाता था और कॉमिक्स ही पीता था. परमाणु जैसे हीरो का नाम ध्रुव और नागराज के साथ लेना एक ऐसा अपराध था जिसके लिए क्षमा नहीं बनी है. नानू अपनी बात आगे बढाता हुआ बोला,

"परमाणु... !! अबे तू पागल क्या है!! परमाणु से झान्टू हीरो कोई नहीं है. वो फर्जी है एकदम....
...अबे परमाणु के पास एक ही तो ताकत है, और वो है परमाणु-बम. वो भी कभी, वो छोड़ नहीं सकता फट्टू. क्यूंकि छोड़ेगा तो खुद ही मरेगा सबसे पहले...
तू मुझसे एकदम फालतू की बात मत किया कर "
सुबू चुप हो गया ....क्यूंकि ..एक बार फिर ..बात निराधार नहीं थी, लॉजिक था...सौलिड !!
कभी कभी सुबू हैरान हो जाता था की कैसे नानू इतना सब कुछ जानता है !!
फिर भी सुबू अब हत्थे से उखड़ चुका था, क्यूंकि नानू उसका हर-एक तर्क बेदर्दी से काट दे रहा था. सुबू बोला,
"तू चूतिया है"
"अबे तू चूतिया है"
"तू महा-चूतिया है"
"अबे ...तू महा-महा चूतिया है"
"तू महा-महा-महा-महा चूतिया है"
"मैं जितने बार चूतिया हूँ...तू उससे एक बार जादा चूतिया है...अब जितने बार महा-महा करना हो कर ले..तू अपने आप उससे एक बार जादा चूतिया हो जाएगा !!!!"

नानू ऐसा दाँव खेल चूका था जिसके आगे तर्क या कु-तर्क की गुंजाइश ही नहीं थी. लड़क-पने में मैं भी तमाम-बार ऐसे मोड़ पर फंस कर निरुत्तर हो चूका हूँ. दर-असल इसे डेड एंड कहते हैं, क्यूंकि इसके आगे कोई तरीका काम नहीं करता और सामने वाले को हार मान लेनी पड़ती है. सिर्फ एक दांव ऐसा है जो ऐसे में वही काम करता है जो धोबी-पछाड़ करता है. उतना ही असरदार.
सुबू ने भी वही किया.
"जो पहले बोलता है, वही होता है!!!"
ये क्या !! दाँव सिरे से उल्टा पड़ चुका था. स्कोर कार्ड फिर से 2 - 1 हो गया था.
नानू का चेहरा उतर गया. और सुबू ये बात पढ़ सकता था. उसने उसे सौरी बोलने में ही समझदारी समझी. लेकिन ऐसे में सौरी भी काम नहीं कर रहा था. और सुबू को तब वो करना पड़ा जो वो बिल्कुल भी नहीं करना चाहता था. सुबू बोला,
"अच्छा सुन...कल कोई अजूबा-वजूबा मुझसे मिलाने नहीं आया था !!"
सफ़ेद झंडे बाहर निकाल लिए गए, और लड़ाई ख़तम कर दी गई...
नानू ने सुबू को अपना चुम्बक खेलने के लिए दे दिया.. और तभी गणित के टीचर महेश जी क्लास में दाखिल हुए.
महेश जी डील-डौल में जितने मज़ेदार प्राणी थे , स्वभाव से उतने ही खूंखार
जलवा ये था की छींक मात्र दें तो लड़के मूत दें. महेश जी ने आते ही बोर्ड पर एक सवाल लिख दिया. उनकी चौक से सवाल छूटने का मतलब ही यही हुआ करता था की लड़के उसे हल करना शुरू कर दें.
और वो सवाल लिखने के बाद अपने पेट पर हाँथ फिराने में खुद को व्यस्त कर लेते थे.
इधर नानू और सुबू वापस से हुई दोस्ती की ख़ुमारी में मगन थे. वापस मिलती दोस्ती अक्सर नई-नई दोस्ती से जादा मीठी होती है.
सुबू ने नानू के गल-बहियाँ डाल कर कहा,
"दोस्त बाई-गौड की कसम खा तो एक बात बताऊँ..
....अच्छा छोड़...मत खा...
मैं बताता हूँ, एक बार इस हांथी ने अपने बच्चे को कंटाप मार दिया था तो उसका कान फट गया.. और वो उसके बाद से आज तक बहरा है"
"चल साले ...क्या सच में?"
"और नहीं तो क्या...मैं क्या भाई से झूठ बोलूँगा ?"
"मुझे तो लग रहा है कि तो झूठ बोल रहा है ..क्यूंकि इसका ना तो कोई लड़का है और ना ही इसका कोई लड़का हो सकता है !! मुझे सीटू भैया ने बताया था की गले लगा कर होंठ पर किस करने से बच्चा होता है ..इसके और इसकी बीवी के मोटापे को देख कर तुझे लगता नहीं है की दोनों का पेट लड़ जाता होगा .."
ये एक ऐसी लाइन थी जिस पर सुबू की टोंटी खुल गई और वो चिर-काल के लिए हँसना शुरू हो गया.
नानू को पता था की जब सुबू हंसना शुरू हो जाता है तो उसका रोकना लगभग असंभव हो जाता है. मुंडी नीचे झुका के वो बस यही मना रहा था की महेश जी उन दोनों को ना देख लें..नानू ने सुबू को जांघ पर चिकोटी भी काटी की वो चिहुंक उठे और शायद हँसना बंद कर दे...लेकिन...
जिसका डर था, वही हुआ. दोनों की पेशी लगा दी गई.

महेश जी का दंड देने का अंदाज़ भी निराला था. अगर अपराध छोटा हो तो फर्स्ट डिग्री, जिसके तहत चॉक से बनाए हुए बड़े गोले को नाक से रगड़ कर मिटाना होता था, दूसरी डिग्री के तहत ऐसे चार गोलों को नाम-ओ-निशाँ मिटाना होता था और अगर छटांक भर भी चॉक छूट गई तो थर्ड डिग्री, जिसमे पूरे ब्लैक-बोर्ड की सफाई डस्टर की जगह नाक से करनी पड़ती थी.
दोनों की थर्ड डिग्री मिला.
क्लास के सारे बच्चों में भाई-चारे की लहर दौड़ गई. पिटने वाले भाई-भाई और बचने वाले उससे भी ज्यादा भाई-भाई.
एक-एक अक्षर मिटाते हुए दोनों यही सोच रहे थे ऐसा क्या किया जाए की मोटे को ठीक बरगद के पेड़ के पास मुतास लगे और मूत की आखिरी बूँद छिटकते ही जिन्न उसके शरीर से चिपक जाए.
दोनों को अगले दिन बोर्ड पर लिखा हुआ सारा कुछ पचास बार कॉपी पर लिखने का दंड दिया गया.
बुझे मन, बोझिल पाँव, और चमकती नाक लेकर दोनों अपने-अपने घर की ओर रवाना हुए.


CHAPTER THREE - 'मान-ना-मान मैं-तेरा-भगवान'

लड़क-पने का मानना-ना-मानना भी अजीब होता है. मानो तो भूत-प्रेत असली, ना मानो तो देवता नकली, पत्थर की मूरत- बेजान सी सूरत. दिल लग जाए तो माटी में भी स्वाद, ना लगे तो दाल-भात बे-स्वाद.
नानू रात भर से कांख में प्याज की गुलथी दबा के लेटा हुआ था. उसका 'मानना' ये था की ऐसा करने से प्याज की गर्मी कांख से गुज़र कर माथे पर चढ़ जाती है और बुख़ार, नहीं तो हरारत, ज़रुर चढ़ जाता है. दोनों ने तय किया था की रात भर प्याज दबा कर सोएंगे, सुबह जब माँ उठाने आएगी तो ख़ुद ही स्कूल जाने के लिए मना कर देगी.
सुबह जब माँ उठाने आई तो नानू ने भारी आवाज़ में जवाब दिया कि आज तबियत कुछ ठीक नहीं है. माँ ने माथा छुआ तो मामला चमा-चम ही नज़र आया. माँ से बहस करना बेकार था, पता था कि जाना ही पड़ेगा, बचपन में माँ का कहा पत्थर कि लकीर नहीं, ख़ुद पत्थर ही होता है, और ज़िक्र नानू की माँ का हो तो चट्टान.
कुछ भी तो अच्छा नहीं हो रहा था, अजूबा-तो-अजूबा, मुआ प्याज भी धोखा दे गया. नानू बेमन से बुस्शर्ट की बटन से एक पल्ला दूसरे पल्ले में टांक रहा था, तभी खिड़की पर सुबू ने सिग्नल दिया.

"हैं-चू-हैं-चू
भौं-भौं
हैं-चू
हैं-चू"

नानू समझ गया की सुबू ही आया है, गधे और कुत्ते की आल्टरनेट आवाज़ उससे घटिया तरीके से निकालने वाला आज तक पैदा नहीं हुआ था.
खिड़की में से एक अंडाकार मुंडी धीरे-धीरे नुमायाँ हुई, तो वही था.
सुबू ने पूछा, "प्याज ने काम किया ?"
जवाब में नानू का बिना छिलके के प्याज जैसा मुह बना देख कर वो समझ गया की कुछ नहीं हो पाया. दोनों झोला ले के स्कूल के लिए निकल पड़े.
"अबे नानू, मेरी नाक देख.. एकदम तोते जैसी हो गई है. कल मेरी अम्मा ने पूछा की ये क्या हो गया, तो मुझे कहना पड़ा की सवाल लगाते लगाते झपकी आ गई थी तो नाक सीधे मेज से टकरा गई.. अम्मा ने डांटा की जादा पढाई मत किया कर. लेकिन कसम से इतनी घिसाई तो कारखाने में बापू भी नहीं करता होगा"
"भाई, मैं क्या सोच रहा हूँ पता है?"
"क्या"
"अगर आज भी घिसाई करनी पड़ी तो नाक की जगह खाली नथुने बचेंगे"
नानू की बात पर सुबू की हंसी छूट गई, "अबे यार तेरी यही बात तो मुझे अच्छी लगाती है, कितनी भी लगी पड़ी हो, तू गज़ब हंसाता है"
"साले तुझे हंसने की पड़ी है...मैं हंसा रहा हूँ?....मैं आज स्कूल नहीं जाने वाला, नाक की जगह नथुने लेकर तुझे घूमना हो तो घूम..."
"यार स्कूल तो मुझे भी नहीं जाना, किसी तरह आज बच जाएं, तो फिर उसका मुह सीधे सोमवार को देखना पड़ेगा, भाई बचा ले ना यार"
दोनों मास्टर-प्लान बनाने बैठ गए. सुबू आज फिर नर्वस था, सो खुजली जारी थी, नानू यहाँ-वहाँ पेंडुलम की तरह घूम रहा था. सुबू उसे प्रोत्साहन की नज़रों से ऐसे देख रहा था की नानू जो भी कर रहा है, शायद वो इस सारे क्रिया-करम और प्रोपोगैंडा के बाद हर बार की तरह चिल्ला पड़े, "आइडिया !!"
लेकिन इस बार आइडिया नहीं निकला, तय किया गया की स्कूल की बजाय मंदिर चला जाए.

दोनों हाँथ जोड़ कर और आँखें बंद कर के खड़े थे. बीच-बीच में आँखें ख़ाली ये देखने के लिए खुलती थी की बगल वाला भी झंडा बुलंद किए खड़ा है या दूसरे को देख कर हंस रहा है. लेकिन दोनों ही सच्चे भक्त की तरह हाँथ जोड़े खड़े थे. हिन्दुस्तान में आस्था से ज्यादा मज़ेदार चीज़ सिर्फ भगवान ही है, झटके में डोलती है, और भटके तो बोलती है. और बच्चों की आस्था इतनी मासूम हुआ करती है ही की ख़ुदा ख़ुद भक्त बन
जाए. दोनों मन में प्रार्थनाएं पढ़ रहे थे, क्यूंकि उनका मानना था की अगर कोई प्रार्थना सुन लेता है तो तो वो पूरी नहीं हो सकती :

"हे भगवान, मैं एक अच्छा लड़का बन के दिखाऊंगा.. मुझे बस एक बार 'गणित के मास्टर-जी' से बचा लो"
"हे भगवान मैं कभी उसे मोटा भी नहीं कहूँगा... 'उन्हें' मोटा नहीं कहूँगा..." (सुबू ने जल्द ही करेक्शन किया)
"मैं माँ का सारा कहना मानूंगा"
"कभी गमले में दूध का गिलास नहीं बहाऊंगा"
"अगली बार से अपनी बहन को बेवक़ूफ़ नहीं बनाऊंगा. और जब उसका टर्न होगा तो उसे फिर से 'बौना-वामन' नहीं बनाऊंगा. वो ध्रुव बनेगी और मैं मार भी खा लूँगा "
"अगली बार से हमेशा स्कूल का काम पूरा रक्खूँगा"
"कॉमिक्स पढना छोड़ दूंगा....

..........................................."

नानू ने आँखे खोल ली. भावनाओं में बह कर वो शायद थोड़ा ज्यादा बोल गया था. 'नेगोशियेशन' जरुरी था..

"ज्यादा कॉमिक्स नहीं पढूंगा"

दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा, आम-सहमति के हिसाब से तय किया गया की भगवान को दो रूपए भी चढ़ाया जाएगा, सुबू के पास पचास पैसे के तीन सिक्के थे और नानू के पास एक. दोनों ने उसे मूर्ति के पीछे रख दिया, ताकि भगवान के अलावा उसे कोई और ना ले सके. इस निर्णय को लेने के लिए जिगरे, कलेजे, और हिम्मत, तीनों की ज़रूरत थी, तीनों लगाए गए, और दोनों दोस्त एक आस्था को लेकर मंदिर से अपने अपने घर रवाना हो गए.


CHAPTER FOUR - 'जादूगर शंकर, स्किन कलर कि पैजामी, और आबरा-का-डाबरा'

सुबह सुबह आज फिर खिड़की पर सिग्नलिंग चल रही थी. सिग्नलिंग का पैटर्न बा-कायदे फिक्स हो रक्खा था. वही आल्टरनेट हैं-चू , भौं भौं ..और उसके पश्चात कांच की खिड़की से एक अंडाकार आकृति का नुमायाँ होना. पर पैटर्न में आज उत्सुकता कुछ-एक, दो चम्मच ज्यादा थी. इसीलिए आज हैं-चू -हैं-चू थोड़ा लहरा ज्यादा रहा था. जैसे सावन का गधा और बारिश का चुदासा कुत्ता.
नानू कके खिड़की पर आते ही सुबू ने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया -

"दूसरी दुनिया में स्वागत है ,
मात्र पचास पैसे में !
अचम्भे की दुनिया में ,
मात्र पचास पैसे में !
पार-लौकिक शक्तियों की दुनिया में ,
मात्र पचास पैसे में !
मात्र पचास पैसे में !
भरम और रहम की दुनिया में ,
मात्र पचास पैसे में !
जादूगर शंकर की दुनिया में ,
आपका स्वा ... ...."

ननु ने सुबू की जबान अंगूठे से ठेपी लगाकर जाम कर दी. पूछा, "साले बावरे, क्या हो गया ?"

"आन्हू-आन्हू... जादू को दुनिया में ...आन्हू आन्हू"
"अरे बावरे .. कौन, कैसा जादू ?"
"आन्हू आन्हू...आन्हू आन्हू"
"अबे साले बता ना , ये बन्दर-चाल बाद में कर लेना!!!"
"भाई मेरे, आज सन्डे है... फिर कल, परसों, तरसो, थर्सो छुट्टी ....महेश मोटे को भूल जा. कसबे में जादूगर शंकर आया हुआ है. जादू देखने चलते हैं. "
नानू की आँखें अँधेरे की बिल्ली की तरह चमक रही थीं. छोटे बच्चों की आँखों की भंगिमाएं संक्रामक होती हैं. दोनों एक-दूसरे को देख रहे थे तो चमक एक की आँखों से दूसरे की आँखों तक फुदक आती थी. 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार' का 'हाउ आई वंडर व्हाट यू आर' उन्ही आँखों में छिटक-छिटक कर तुक-बंदी बिठा रहा था. महेश मोटा हार गया था, जादू की दुनिया जीत रही थी, दोनों बनच्चर उछल उछल कर गा रहे थे ...
"आज की रात सनम डेंस करेंगे ...डेंस करेंगे , रोमेंस करेंगे.."
"ओ-हो..आज की रात सनम..."
लेकिन अचानक सुबू ने नानू के डेंस पर लंगड़ मारा. कुछ सोच के उसका मुह समोसे जैसा हो गया था.
"बड़े भाई.. जादू देखने के लिए पैसे कहाँ से लायेंगे ... जो कुछ था वो सब तो मंदिर में रखवा दिया तूने"
छोटे बच्चों की आँखों की भंगिमाएं संक्रामक होती हैं. एक और समोसा छन गया. डेंस रुक गया, रोमेंस रुक गया.

"चल मंदिर "
"मंदिर ?", सुबू ने पूछा.
"हाँ मंदिर.."
बताया था ना, हिंदुस्तान में आस्था से मज़ेदार सिर्फ भगवन ही होता है. नानू ने सुबू को समझाया की भगवान को पैसे से कोई मतलब-वतलब नहीं होता, चल कर देखा जाए, अगर भगवान ने पैसा ले लिया होगा तो कोई बात ही नहीं, अगर नहीं लिया होगा तो उसका यही अर्थ है की उसे पचास पैसा नहीं चाहिए. गलियाँ सरपट काटते हुए, बड़ी साँसों से छोटी साँसे छांटते हुए, छंटाक भर के दोनों, क्षण भर में मंदिर पहुँच गए,. दिल जोर का धड़कता था, आज प्रश्न भगवान के लालच पर उठा था, परीक्षा पार करनी जरुरी थी...
पचास पैसे के सिक्के वहीँ रक्खे थे, क्यूंकि कमबख्तों ने ऐसी जगह छुपाए थे, कि, पुजारी क्या, भगवान भी उठाता कैसे ...

दोनों ने सिक्के उठाए, दौड़ना शुरू हुए, और, अगले आधे घंटे में पांडाल के अन्दर थे.

ज्यादा देर भी नहीं हुई थी, अभी-अभी जादूगर शंकर ने लकड़ी की छड़ी को खड़ा कर के उसकी नोक पर एक लड़की को ऐसे सुलाया था मानों माँ ने लोरी गा के सुला दिया हो. सुबू और नानू को सांप सूंघ गया था. पूरे पांडाल को काटो तो खून नहीं. जनता को लगा कि इसके बदले में इतनी तालियाँ पीट दें कि हंथेलियों पर गुलाबी रंग की उबाल आ जाए. जादूगर ने मुस्कुराते हुए कहा, "दाद चाहूँगा", और उसके जवाब में तालियों की करतल ध्वनि नहीं, गड़-गड़ाहट से जादूगर को लाद दिया गया. बदले में जादूगर ने भी ऐलान किया, "अब मैं आप लोग को दिखाऊंगा, जादूगर शंकर का इन्द्र-जाल, जिसमें जादूगर शंकर खुद को तीन हिस्सों में बाँट लेता है". एक काले रंग का पर्दा लाया गया, चमड़ी के रंग की चुस्त पैजामियाँ पहने दो औरतें उसे जादूगर के सामने थामे तैनात हो गईं. परदे के पीछे से जादूगर के बुद-बुदाने की आवाजें तेज़ हो रहीं थी, बिलकुल वैसे ही जैसे पतीले से उबल कर गिरने से पहले दूध बुद-बुदाता है -

"नंग-धडंगे सच आया, ना बुस्शर्ट, ना घाघरा
लुंगी से कबूतर निकला, आबरा-का-डाबरा
झूठन कि हंसाई हुई, खुला भेद माज़रा
पलटन में बजी है ताली, सोलह-सोलह मातरा"

सुबू ने धीरे धीरे से नानू से पूछा, "क्या लगता है, तीन हिस्से होंगे ?"
"क्यूँ नहीं होंगे ! "
अपनी बेवकूफी पे सुबू शर्मिंदा हुआ, बात शर्मिंदा होने की थी भी, सौरी बोल कर उसने अपने चेहरे पर और अधिक भक्ति भाव ओढ़ने की कोशिश की. और टुकुर- टुकुर काले परदे को मुलुर-मुलुर निहारने लगा.
चमड़ी के रंग की चुस्त पैजामियाँ पहने दोनों औरतें मुस्कुराईं और उन्होंने पर्दा ऐसे छोड़ दिया जैसे अलिफ़-लैला में मालिकायें चहरे से हिजाब गिरा देती थीं.
हिज़ाब गिरा ....और सामने तीन जादूगर शंकर खड़े मुस्कुराते पाए गए !
जादू की जीत हुई, महेश मोटा हार गया, बहारिस्तान की जीत हुई, कॉमिक्स की दुनिया की जीत हुई, हर बच्चे के मासूम भरोसे की जीत हुई. जादूगर शंकर तीन तरह की मुस्कराहट से तीन जगह मुस्कुरा रहा था. पर्दा वापस लाया गया, वापस गिराया गया, जैसे कि कैसेट उलटा बजाई गई हो, और कैसेट के उल्टा बजते ही तीन जादूगर शंकर, वापिस एक जादूगर शंकर में इकठ्ठा हो चुके थे.

जादूगर शंकर ने जनता कि तालियों का अपनी मुस्कराहट से शुक्रिया अदा किया, और फिर से ऐलान किया, "अब आप में से कोई एक ...कोई एक ... यहाँ पर आएगा और मैं उसे गायब कर दूंगा. "
" हाँ तो .. कौन यहाँ आने वाला है ... गायब होने के लिए ?"
ये एक बहुत बड़ा सवाल था. पूरे पांडाल में कुल तीन लोग खड़े हुए, लेकिन अचानक संख्या तीन से एक हो गई, क्यूंकि दो को उनके नाते-दारों ने ये "पागल हो गया है क्या?" कह कर वापिस बिठा लिया. पहली लाइन में अभी तक खड़े इंसान को जादूगर ने बा-इज्ज़त ऊपर बुलाया, दोनों औरतें आयीं, पर्दा लगाया, बुद-बुदाहट हुई, पर्दा वापस गिराया ... जादूगर ने मंतर पढ़ा -
"नंग-धडंगे सच आया, ना बुस्शर्ट, ना घाघरा
लुंगी से कबूतर निकला, आबरा-का-डाबरा
झूठन कि हंसाई हुई, खुला भेद माज़रा
पलटन में बजी है ताली, सोलह-सोलह मातरा"

वो इंसान गायब किया जा चुका था.


CHAPTER FIVE - 'आइडिया, पैटर्न, नथुने और आखिरी सिक्के'

दिन भर कि जादू कि दुनिया में हिलोरें लेकर दोनों जब घर लौटे थे तो ऐसे भाव-विभोर थे कि सुहाग रात कि अगली सुबह आदमी और औरत. बोलते कुछ न थे, बस एक दूसरे को देख कर मुस्कुराते और पता नहीं क्यूँ शर्माते भी जाते. तमाम देर यही उप-क्रम दोहराने के बाद नानू ने सुबू से कहा, "भाई मैं सोच रहा था कि अगर कल को जादूगर हमें गायब कर दे तो ..तो हम महेश मोटे के चुंगल से बच जाएँगे. साला जब हमें देख ही नहीं पाएगा तो नाक क्या ख़ाक घिसवाएगा ??.... क्या बोलता है ??"
सुबू कि हालत फिर ऐसी गई थी जैसे भगवान राम के आगे हनुमान जी हो, वो कहना चाहता था कि भगवन आप तो जो भी करेंगे वो सही ही होगा, लेकिन सुबू कुछ कह नहीं पाया. बस सोच ही रहा था कि नानू कि खोपड़ी में इतने आइडिये आते कैसे हैं.
"यार, देख... हमारे पास अभी भी पचास पैसे के तीन सिक्के और हैं. हमारे पास मतलब भगवान के पास. यानी कि हम तीन बार और जादू देख सकते हैं. और अगर तीनों में से एक भी बार उसने हमें आगे बुला लिया तो समझ कि जैक-पाट लग गया. इतना चांस तो ले ही सकते हैं. क्या बोलता है ?"
सुबू को मास्टर प्लान बहुत पसंद आया. तय किया गया कि दोनों मंदिर जाकर भगवान से बा-कायदा क्षमा मांगकर सिक्के लिए आएँगे और अपनी किस्मत आज़माएंगे. और अगर ऐसा हो गया, तो इसका मतलब ही यही है कि भगवान भी चाहता था कि उसको बीच में टांग अड़ाने कि जरुरत ही ना पड़े और काम भी हो जाए.
अगले दिन दोनों मंदिर गए और सिक्के लेकर जादूगर के पांडाल में पहुंचे.
दोनों आगे वाली सीट पर ठीक उसी जगह बैठे जहाँ पर पिछली बार आदमी को जादूगर ने ऊपर बुलाया था. जादूगर ने वही सारे जादू वापस से उसी महा-रथ और सफाई के साथ दिखाए. लेकिन दोनों को तो बस गायब होने वाले जादू का इंतज़ार था. जादूगर ने फिर से जनता से वही सवाल पूछा, इस बार फिर चार-पांच लोग ही खड़े हुए, लेकिन किस्मत वाला एक ही. नानू और सुबू का नंबर नहीं आया.
लेकिन दोनों ने हिम्मत नहीं हारी, दो दिन और किस्मत आजमाने कि कोशिश की, लेकिन ढाक के तीन पात. कम्बखत हर बार कोई और ही बाज़ी मार ले जाता था.
दोनों जासूसी दिमाग लगा कर रोज़ इस बात का पैटर्न समझने कि कोशिश करते थे कि जादूगर आख़िरकार कहाँ बैठे आदमी को उठाता है, या उसकी फेवरिट पोजीशन क्या है. दोनों रोज़ जादू देखने के बाद घर जाकर मिट्टी पर पांडाल का कच्चा नक्शा बनाते थे और ये भिड़ाने कि कोशिश करते थे कि कल संभावित जगह कौन सी हो सकती है. वैसे तो उन्हें भी कुछ ख़ास समझ नहीं आ रहा था कि वो दोनों ये सब 'क्या' कर रहे हैं, पर ये ज़रूर समझ आ रहा था कि वो ये सब 'क्यूँ' कर रहे हैं.

कल फिर से स्कूल खुलने वाले थे, पचास-पचास के चारों सिक्के ख़तम हो चुके थे, गायब होने का मास्टर प्लान फुस्स हो गया. जिसका सीधा-सादा अर्थ ये था की महेश मोटा जीतने वाला है.
सुबू ने कहा, "अब?"
"अब मतलब?"
"अब मतलब कल क्या होगा .नाक तो पहले ही घिस चुकी है, खली नथुने बक़ाया हैं. अब कल पता नहीं क्या घिसवाएगा !!"
"कुछ नहीं होगा, चल जल्दी से जादूगर के कमरे में चल. उसके पैरों पर गिर जाएँगे .. देखते हैं कुछ न कुछ तो होगा ही .."
दोनों तम्बू के नीचे से सरक गए.
शंकर दोनों को देख कर हैरान था .. हालांकि कुछ ना कुछ तो समझ ही रहा था. क्यूंकि ये दोनों कम्बखत अपनी एड़ियों पर उचक कर, दाहिना हाँथ तान कर, चार इंच के छोरे, छह इंच बन्ने की मशक्क़त करते थे , ताकि जादूगर किसी तरह उन्हें ऊपर बुला ले. हाँथ इस तरह से दायें-बायें लहरते थे जैसे सरेंडर करने के लिए दुश्मन झंडा लहरा रहा हो. ऐसी मन-लुभावन मूर्तियाँ दिमाग में एक बार छप जाती हैं तो आसानी से मिटती नहीं हैं. शंकर पहचान गया था.

"तुम दोनों यहाँ कहाँ से आ गए ?"
शंकर आगे कुछ बोल पता उससे पहले ही दोनों उसके पैरों पर गिरकर दंडवत करते पाए गए...दोनों के चहरे ज़मीन की ओर थे इसलिए ये नहीं समझ आ रहा था की कौन सी आवाज़ किसकी थी, लेकिन आवाजें कुछ इस तरह थीं ..

"शंकर जी हमें प्लीज़ बचा लो .."
"नहीं तो महेश मोटा हमारा कचूमर बना देगा. उसने हमें पचास-पचास बार एक ज़वाब लिखने के लिए कहा है "
"लेकिन हम पचास-पचास बार जवाब लिखेंगे तो हमारी उँगलियों को लकवा मार जाएगा ..हमें प्लीज़ गायब कर दो जिससे की वो हमें देख ना पाए ..."

"हाँ हमें प्लीज़ गायब कर दो ... नहीं तो... बस हमें प्लीज़ गायब कर दो ."

भगवान् की जगह जादूगर ने ले ली थी. ज़रूरत में जो ज़रूर आए वही भगवान.

"हमारी चवन्नियां भी ख़तम हो गई हैं शंकर जी. प्लीज़ हमें गायब कर दो "

"छोकरों ... मैं तुम दोनों को गायब नहीं कर सकता हूँ "
जादूगर इतना निष्टुर-निर्दयी-निर्मम-निर्मोही कैसे हो सकता था!! एक पतली और दूसरी उससे तनिक और अधिक पतली आवाज़ इस कुठाराघात से ऐसे सुन्न हो गई थी जैसे की ज़ेब में से शब्द ख़तम हो गए हो ...दोनों ने ज़ेबें उलटी कर के, बाहर निकाल कर, झाड़ झाड़ कर भी देखा ... ना तो ज़ेब में कोई शब्द ही बचा था और ना ही कोई आइडिया ....

सुबू और नानू ने वही किया जो इस समय सबसे बेहतर तरीका हो सकता था. या प्रयास, सायास था या अनायास ..ये तो नहीं पता था लेकिन दोनों की आखों से अश्रु-धाराएं ऐसे बह रही थीं कि जादूगर के एक एक कतरे को आखिरी ज़र्रे तक अपने में बहा ले गयीं... जादूगर को जल्दी ही अपनी बात वापस लेनी ही पड़ी.

"अच्छा ठीक है मैं तुम दोनों को गायब कर दूंगा.लेकिन मेरी एक शर्त है ..तुम दोनों सिर्फ महेश मोटे के सामने गायब हो सकते हो. बाकी सब लोग तुम्हे देख सकते हैं .. मंज़ूर है ?"
मंज़ूर ना होने की गुंज़ाइश ही नहीं थी. दोनों ने झट-पट अपनी आँखें बंद कर ली.
जादूगर ने वापस आँखें खोलने को कहा.
"अब जाओ"
"पहले गायब तो करो..."
"तुम दोनों गायब हो चुके हो, महेश मोटा तुम दोनों को नहीं देख पाएगा, अब जाओ यहाँ से "
"लेकिन तुमने वो साबी तो कहा ही नहीं ...वो ...कुछ.. नंग धडंगे ... बुस्शर्ट और घाघरा ...?"
"मैंने कहा ना, तुम दोनों गायब हो चुके हो...."


CHAPTER SIX - 'आल्हा ऊदल बड़े लड़ईया, बैल बेच के लाए गधइया'

रात भर दोनों को नींद नहीं आई थी, ख़ुशी से. दोनों दिमाग में तरह-तरह के प्लान बना रहे थे . सुबू सोचता था की वो पीछे से जाकर महेश मोटे की पतलून पर चॉक से एक बड़ा सा गोला बना देगा ताकि वो बोर्ड पर लिखने के लिए पीछे घूमे तो पूरी क्लास उस पर हँसे.

अगले दिन दोनों सबसे पहले जाकर क्लास में बैठ गए थे. महेश मोटे का इंतज़ार बड़ी बेसब्री से किया जा रहा था. सभी बच्चों को हैरानी हो रही थी की आज दोनों बड़ी तबियत से पिटने वाले हैं, फिर भी इतनी ढिठाई और बे-शर्मियत से हंस क्यूँ रहे हैं.
ख़ैर.. बे-शर्मों को बा-शर्म बना देने वाला महेश मोटा आ गया था. और उसकी आँखें दोनों को खोज रही थी.
सुबू और नानू को.
दोनों की हंसी थामे नहीं थमती थी. दोनों हंथेलियों से कस कर होंठ दबा कर हँसते थे. लेकिन महेश जी उन दोनों को खोज नहीं पा रहे थे.
"आज कहाँ हैं दोनों .. ढपोर-शंख?"

एक सूखे लड़के ने मोटी आवाज़ में ज़वाब दिया, "सर वो दोनों आज आगे बैठे हुए हैं ना ..."

"ओ हो , तो आज यहाँ बैठे हैं मेरे दोनों वीर बहादुर ...आल्हा और ऊदल.आइये अपनी-अपनी कॉपी दिखाइए, लिखा है ना पचास-पचास बार ?..."

दोनों मुह खोले, अवाक, निर्निमेष, अपलक, महेश जी को मुलुर-मुलुर निहार रहे थे. दोनों को काटो तो खून नहीं. जादूगर उनके साथ धोखा नहीं कर सकता था. या फिर उसका जादू महेश जी पर चला नहीं?
दोनों अपनी जगह से हिलने की स्थिति में नहीं थे. महेश जी ने उन्हें कष्ट देना उचित भी नहीं समझा. खुद अपने हांथों से दोनों का एक-एक कान पकड़ कर स्टेज पर मूर्तिवत स्थापित कर दिया. दोनों ख़ूब उड़ाए गए.

'ख़ूब' भी और 'बहुत-ख़ूब' भी.

एक कमज़ोर रग़ दब सी गई थी, उपाय जरुरी था. और चोट जब इस तरह की हो तो उसका उपाय सिर्फ बदला होता है. बदला गणित के मास्टर से अब क्या ही लिया जाता, या बाद में भले ही लिया जाता, अभी तो जादूगर से हिसाब-किताब बाक़ी था. दोनों ऐसे रोते थे जैसे ब्रज की गोपियाँ, और किसी भी उद्धव का कलेजा उन दोनों को देख कर डोल ही जाता. सुबू ने नानू से कहा,
"चल सीधे पांडाल"
"शंकर ?"
"हाँ .. हिसाब-किताब किए बिना सांस नहीं लिया जाएगा"
"क्या लगता है तुझे... होगा वो वहां... जिसके मन में चोर होता है वो पहले ही डर के भाग जाता है"
"मुझे नहीं मालूम, बस चल वहाँ "

बस्ता टाँगे हुए दोनों सीधे शंकर के पांडाल में पहुंचे. अब बदला लेने की बारी थी. लेकिन बदला कैसे लेना था ये दोनों में से किसी को पता नहीं था. दोनों एक-दूसरे का और फिर शंकर का चेहरा देख रहे थे.
चुप्पी तोड़ी गई ..

"तुने हमारे साथ ऐसा क्यूँ किया ..."
सवाल विद्रोह के साथ पूछा गया था ... और ख़तम कारुण्य के चरम पर हुआ. आए बदला लेने थे लेकिन हुआ कुछ और ही. सवाल ख़तम करते करते दोनों इतना रोए जितना की महेश मोटे के मारने पर भी नहीं रोए थे. अगर कोई शंकर से पूछता तो उसके अनुसार ये चीटिंग थी, दोनों बच्चे लड़ लेते तो ठीक था, कोई शक्ति-शाली इंसान आकर उसे पीट भी देता तो भी ठीक था...लेकिन ये.. ये तो सरासर चीटिंग थी, क्यूंकि इसका कोई भी उपाय, उत्तर, प्रत्युत्तर अथवा नुस्खा उसके पास नहीं था. अब अगर वो अपनी जादू की टोपी में हाँथ भी डालता तो कुछ निकल कर नहीं आता. शंकर अपना इंद्रजाल भी चलाता तो वो एक का तीन हो जाता, और तीन-गुनी पीर होती फिर. शंकर ने धीरज रक्खा, और पूछा, " क्या.. तुम लोग गायब नहीं हुए ?"
"सुबू चिल्लाया, "होते कैसे ... तुम ढोंगी हो"
"दुखी मत हो छोकरों. कुछ कम-ज्यादा हो गया होगा. ये जादू भी एकदम खाने के पकवान की तरह होता है मेरे दोस्त. और इसका मंतर नमक-धनिया-हल्दी के माफ़िक. एक-आधा चुटकी कम ज्यादा हुआ नहीं की सत्यनाश हो जाता है, एक-दो मिनट ज्यादा पकाया नहीं की सब गुड़-गोबर. इस बार मैं पुनरावृत्ति मंतर मारूंगा"
बहुत देर से चुप खड़ा नानू बोला, "उससे क्या होगा ?"
"पुनरावृत्ति मंतर से एक चीज़ बार-बार हो जाती है. दोहराई जा सकती है. तो.. बस तुम दोनों एक-एक बार अपनी कापी पर वो लिख डालो जो की मास्टर जी को दिखाना है .. आज पूरण-मासी है, मैं उस पर अपना जादुई पंख फिराऊंगा, और वो उसकी पचास बार पुनरावृत्ति कर देगा..."
सुबू ने नानू की तरफ देखा, आँखों ही आँखों में सवाल पूछा गया की जादूगर पर अब भरोसा करना है या नहीं.. सवाल का ज़वाब हाँ था.. मरता क्या न करता

दोनों ने एक-एक बार कॉपी पर ज़वाब लिख कर जादूगर को कॉपी थमा दी.
"अब ?"
"अब तुम दोनों कल सुबह आना, मैं रात को बारह बजे इन दोनों पर पंख फिराऊंगा. कल सुबह आकर अपनी कॉपी ले जाना"


CHAPTER SEVEN - 'पूरण-मासी, पुनरावृत्ति मंतर और जादुई पंख'

दोनों को रात भर नींद नहीं आई. आती भी तो कैसे? मन में तरह तरह के सवाल उठते थे. कल उनके हर-एक भरोसे का फाइनल एक्ज़ाम था. कल पिछड़ने का मतलब था की शायद उनकी काल्पनिक दुनिया झूठी है, नागराज, ध्रुव, तौसी, उसका अभी-अभी पैदा हुआ बेटा टनी, बरगद का जिन्न, और.... शायद अजूबा भी. और नानू ये एकदम नहीं चाहता था की दुनिया में कोई भी हरक़त उसके इस भरोसे को तोड़ सके. भरोसे के सच होने के लिए उसके पास सबूत भी थे. सब कुछ उसके दिमाग में वापिस से एक चक्कर घूम जाता था, मसलन, किताब में दबे पंख से बच्चा निकलना कोई मामूली बात नहीं थी. गया प्रसाद को जिन्न चढ़ जाना भी मामूली नहीं हो सकता था. उसकी चुम्बक भी अभी तक सटीक काम करती थी... दिमाग में यही सब गढ़ते-बुनते उसे नींद आ गई.

सुबह सुबह उसकी नींद सुबू की सिग्नलिंग से खुली .. वो आज फिर गा रहा था और बेतहाशा नाच रहा था...

"आज की रात सनम डेंस करेंगे ,
डेंस करेंगे, रोमेंस करेंगे.."

नानू ऐसे छिटक के खिड़की पर आया जैसे एक कंचा मरो तो दूसरा कंचा अपनी जगह से छिटक कर छेड़ में घुस जाता है,
"अबे क्या हुआ?"
"आज की रात सनम डेंस करेंगे ,
डेंस करेंगे, रोमेंस करेंगे.."

"अबे बोल न भाई ... हुआ क्या ..?"
"आज की रात सनम डेंस करेंगे ,
डेंस करेंगे, रोमेंस करेंगे.."

"अबे बोल नहीं तो मैं तेरा मुंह तोड़ दूंगा ... और जादूगर से कॉपी लेने नहीं जाना है क्या..."
"भाई मेरे रात भर ऐसी फटी हुई थी कि नींद ही नहीं आ रही थी. आज सुबह जल्दी से उठ कर सीधे शंकर के पांडाल में गया. डर लगता था कि कहीं वो हम दोनों से डर कर पांडाल उखाड़ कर भाग ना गया हो. लेकिन ये देख..."
सुबू ने शर्ट के बटन खोल कर अन्दर से दोनों कॉपियां निकाली, हवा में लहराई...तो उसकी मुस्कराहट देख कर नानू समझ गया की पूरण-मासी का पुनरावृत्ति मंतर काम कर गया है.
सुबू ने पूछा,
"भाई ... क्या लगता है .. उसने खुद तो नहीं लिख दिया होगा न रात भर में?"
नानू ने कहा, "पागल है क्या .. यही तो जादू होता है मेरे दोस्त... ये जादू भी एकदम खाने के पकवान की तरह होता है मेरे दोस्त. और इसका मंतर नमक-धनिया-हल्दी के माफ़िक. एक-आधा चुटकी कम ज्यादा हुआ नहीं की सत्यनाश हो जाता है, एक-दो मिनट ज्यादा पकाया नहीं की सब गुड़-गोबर."

दोनों ने जल्दी जल्दी अपना झोला टांगा, उसमे कॉपियां भरी और कुलांचे मारते हुए, छोटी साँसों को बड़ी साँसों से काटते हुए स्कूल के लिए रफूचक्कर हो गए.
जादू कि दुनिया जीत चुकी थी
महेश मोटा हार गया था
सुपर कमांडो ध्रुव जीत गया था
नागराज और टनी जीत गए थे ...

लड़क-पन जीत गया था ...

Saturday, April 3, 2010


बाजरे का रोटला, टट्टी और गन्ने की ठूंठ
'अबे तेरा टट्टी मेरी टट्टी से मोटा क्यूँ है ?'
..
'अबे बोल ना'
'कल क्या खाया था ?'
'दाल पी थी'
'तूने?'
'बाजरे का रोटला'
'समझा?'
'नहीं'
'चूतिया साला'
'अबे गाली मत दे , मैं बोल रहा हूँ!'
'क्या गाली दी बे?'
'अच्छा ...'साला नहीं बोला तूने?'
'साले कौन सी गाली होती है बे?'
'होती है, मैं सीटू से पुछवा दूंगा'
'सीटू भी सिर्री है और तू भी सिर्री है '
...
"अच्छा"
....
सूखे लौंडे से रहा नहीं जा रहा था, वो जमीन पर उंगली से सांप बनाता था और फिर पानी डाल के उसको ख़तम कर देता था ..
"अबे बता ना ...तेरा टट्टी मेरी टट्टी से मोटा क्यूँ है ?"
काला लौंडा शुरुआत से ही कटे हुए गन्ने की एक बची हुई ठूंठ उखाड़ने की कोशिश कर रहा था,
ठूठ बाहर नहीं आ रही थी, वो जब भी ज्यादा जोर लगाता, टट्टी धक्के से आती थी
सूखे लौंडे से गन्ना नहीं उखाड़ता था इसलिए वो दूसरे काम में मगन था, वो दोनों टांगों पे उकडू बैठ के हगता था और उचक के ये देखता था की टट्टी ज़मीन पर गिरने से पहले कितनी लम्बी हो जाती है
'अबे देख..!'
'अबे साले जल्दी देख ना ..ए बे देख....'
'क्या ?'
'साली सांप के बराबर हो गयी थी'
'हुह ...मेरी एक दिन आधा-हाँथ लम्बी हो गयी थी'
'अबे मेरी और बड़ी हुई थी ..करिया सांप के बराबर'
कौन सा सांप'
'अबे करिया सांप, वो जो दिलावर के दुआरे निकला था परसों'
'चल...झूठा साला'
सूखा लौंडा दुखी हो गया
'अबे तू देखता नहीं है...मैं इसीलिए बोला था, तू पहले देखता नहीं है फिर मैं बोलेगा तो मानता नहीं है..सच्ची... सांप के जितना लम्बी हो गई थी....पूरी एक हाँथ लम्बी.....माँ कसम'
'चल साले'
'मादरचोद' (सूखा लड़का, एकदम धीमी आवाज़ में)

दिलावर के दुआरे सांप, पेटीकोट और सीटू का विधवा विलाप
टोले में सांप निकलना कोइ नई बात नहीं थी, सांप कभी भी निकल आता था, रात-बे-रात, और कहीं भी निकल आता था
दुआरे पे , अरगनी पे, धन्नी पे, अटारी पे, खटिया के नीचे या पनारे पर
उस दिन जब दिलावर के दुआरे सांप निकला तो ये भी कोइ बड़ी भारी बात नहीं थी, सांप के काटने से जब माधो मरा था तो भी कोइ बड़ी भारी बात नहीं हुई थी
माधो की घर वाली का चौदह दिन बाद ब्याह करवा दिया गया था और अब वो मदनपुर में अपने ससुराल चली गयी थी
दिलावर के दुआरे जब सांप निकला तो सीटू गर्दन फाड़ फाड़ के हल्ला मचा रहा था
'हो...हू-हू-हू...हुस हुस हुस...हुर्र-रर--रर-हुर्र'
'हो...हू-हू-हू...हुस हुस हुस...हुर्र-रर--रर-हुर्र'
दिलावर बाहर आया तो उसका मुह ऐसा तमतमाता था जैसे सुलगता हुआ कोयला फूंक मारे जाने पर चिटकता है..
'का रे बनच्चर ...काहे हल्ला मचाता है '
'हो...हू-हू-हू...हुस हुस हुस...हुर्र-रर--रर-हुर्र'
'बानर की औलाद, चुप हो जा नहीं तो मुह तोड़ देंगे हम'
'हो ...'
'अबे साले भाग बानर-जात'
सीटू सरपट भागा
सरपट सांप भी भागा, दिलावर के घर के अन्दर
अन्दर से सरपट कोइ बाहर की तरफ भागा. सांप नहीं था, कोइ और ही जन्तु था
मानुस था शायद ..हाँ मानुस ही था
नहीं औरत थी
हाँ औरत ही थी ..
क्यूंकि वो जल्दी में धोती लपेट के भागी थी
और इसलिए भी औरत ही थी क्यूंकि जब वो सब कुछ बटोर के भागी थे तो दुआरे उसका पेटीकोट गिर गया था
दिलावर ने सीटू का सारा गुस्सा करिया सांप पे निकाला और उसका फन ऐसा कुचला की 'फूं' भी नहीं कर पाया
सांप ऐसे मारा जैसे एक दिन सूखे लौंडे ने टट्टी के वक्त पानी डाल के मार डाला था
दिलावर को नींद नहीं आ रही थी, पेटीकोट बिछाया खटिया पर, लेटा, तब जा के कहीं खर्राटा आया उसको

सूखा लौंडा, ट्रेक्टर, हवाई चप्पल, सोटा और महतारी
'अम्मा खाना दे'
'खा ले जा के अरगनी पे बटोई में रक्खा है'
'दाल है ये तो'
'लपसी खाएगा लाट-साहब, कहे तो माहुर(जहर) ले आऊं?'
'मैं दाल नहीं खाऊंगा, मुझको टट्टी पतली आती है तो भंवर मुझको चिढ़ाता है, सीटू को भी मोटी टट्टी आती है'
'सोंटे से मारूंगी दलिददुर कही का, खाना है तो खा नहीं तो पडा रह पेट में गीला गम्छिया बाँध के, भूख कम लगेगी'
'नहीं खाऊंगा'
'मैं बता रही हूँ खा ले बनच्चर नहीं तो सोंटा बजेगा आज'
सूखे लौंडे ने खाना नहीं खाया, महतारी घर का काम करती रही
लौंडा मिट्टी का ट्रेक्टर सारे घर में घुमा रहा था, उसने कूड़े से एक जोड़ा हवाई चप्पल जुटा ली थी, उसमे कोले कर के उसने रबड़ के चार पहिए भी निकाल लिए थे
ये ट्रेक्टर उसका दिमाग खाने से निकाल कर थोड़ी देर के लिए उधम में घुसेड देता था, लेकिन यहाँ वहां घंटा भर नाच लेने के बाद उसको फिर खाने की सुरता(याद) आ गई
'मुझे खाना दो, भूख लगी है'
'कहा ना मैंने की दाल पी ले '
लौंडा समझ गया कि उसे दाल के अलावा कुछ और जुगाड़ नहीं मिलाने वाला है, इसलिए वो फिर से ट्रेक्टर टहलाने लगा
अम्मा के बगल में आ कर खड़ा हो कर सोचने लगा की क्या तिकड़म भिड़ाए की जुगाड़ बन जाए उसका ...एक हाथ से नाक और दूसरे हाथ से कांख खुजाता रहा ...थोड़ी देर बाद बोला ...
'तुम हमको प्यार नहीं करती हो अम्मा...भंवर की अम्मा उसके लिए बाजरे का जे-मोटा-मोटा रोटला बनाती है ....लेकिन तुमको फिकर काहे होए हमारी ...'
महतारी को गुस्सा आ गया और उसने कपड़े धोने का पटा लौंडे के फेंक कर मारा, गलती से पटा लौंडे के सर पर जा लगा और उसका सर फट गया
महतारी भागती हुई दिए की ढिबरी उठा लाई लेकिन उसमे तेल नहीं बचा था ...
'अच्छा खाना खा ले ...'
लौंडा कुछ नहीं बोला
'अच्छा जा बाहर जा के खेल आ ...'

रानी, चूतिया, असर्फियाँ और जोगीरा सारा-रा-रा
'उस दिन कहे भागी थी तू...हम कसम बता रहे हैं काट डालेंगे...बोले थे ने की हिलना मत, हम देख के आ रहे थे ना की कौन चिल्ला रहा है दुआरे ...तो हिली कहे तू ... अब माँ कसम हंसिया से काट डालेंगे हम'
'सांप आ के घुस रहा थी धोती में ...मूरख मानुस....भागते नहीं का हम ....
गुस्सा काहे होता है'
'अच्छा गुस्सा ना हो .. आज हम वो कर देंगे तोहरे लिए ...जोगीरा सारा-रा-रा
दिलावर की आँखे चमक गईं, उसको उम्मीद नहीं थी की औरत अचानक से ऐसी बात बोलेगी ..उछल के खटिया पे जा बैठा, उकडू बैठ के ऐसा घूरे था .. जैसे ...जैसे ..मास्टर की क्लास में मुर्गा बना हुआ सीटू
'मैं तुझे रानी बना दूंगा एक दिन..सच कहता हूँ'
'चल साले झूठे'
'झूठ बोलूँ तो मेरी कखरी में खाज हो जाए और मैं खुजा खुजा के मर जाऊं ....मैं सच कहता हूँ तुझे रानी बना दूंगा एक दिन'
'क्यूं , तेरी गाय असर्फियाँ हगने लगी है आजकल?'
'हाँ यही समझ ले मेरी रानी'
'आज हम वो कर तो देंगे तोहरे लिए.... लेकिन ....हमारी सरत है ...कि अब और हमको चूतिया नहीं बनाइएगा जी आप ...ये रोज रोज हमसे पेटीकोट संभाल संभाल के आइस-पाइस नहीं हो पाएगी , कहे दे रहे हैं '
'अरे जो चाहिए उठा ले जा, पूरा घर और पूरी कोठरी पड़ी है तेरे लिए...'
दिलावर अधीर हुआ जा रहा था ....
'हमको चूतिया बनाने की कोसिस मत करना...हम एक बार फिर से कहे दे रहे हैं '
'हाँ ...कह दिए ना ...अब जादा मान मत कराओ नहीं तो साली बचोगी नहीं हमसे... बताए दे रहे हैं'
....
'जोगीरा सारा-रा-रा'
'जोगीरा सारा-रा-रा'
दिलावर गाना गाता था ... और वो नाचती थी
उस दिन वो बहुत नाची और उस दिन के बाद अक्सर दिलावर गाना गाता था, जोगीरा सारा-रा-रा और वो उसके मन का ठुमका लगा देती थी
...
'इसको खोल ना'
...
'और ये'
....
'ये ले'
जोगीरा सारा-रा-रा ....
'जोगीरा सारा-रा-रा'...

काला लौंडा, सूखा लौंडा, पुआ और टट्टी
'अबे कल क्या खाया था तूने'
'बता ना साले'
'गाली मत दिया कर'
'अबे ...'साले' गाली नहीं होती है...कितनी बार बताया है ...
'अच्छा वो सब छोड़... बता ना कल क्या खाया था तूने'
'दाल तो नहीं खाई होगी, और बाजरे का रोटला भी नहीं ....
आजकल ...आजकल तेरी टट्टी देख के लगता है की बहुत मालपुआ दबा रहा है'
...
'अबे बता ना '
'हाँ ....गुड़ खाया था और पुए खाए थे.... बाजरा मुझे गले से नहीं उतरता है ... मैं बस पुआ खाता हूँ'
'चल साले ..मैं नहीं मानता'
'मत मान ...मैं कब बोल रहा हूँ मानने के लिए'
'अबे नहीं यार ...मैं मान रहा हूँ ...आजकल तू रोज मालपुआ खा रहा है...मैं टट्टी देख के बता सकता हूँ...इतना तो तजुर्बा है ...
मोटा लौंडा उंगली से जमीन पर सांप बना रहा था लेकिन उसका जी नहीं लग रहा था आज, दिमाग तो उसका पुए में ही अटका हुआ था
.....मेरे लिए भी माल पुआ लाएगा एक दिन ?'
'देखूंगा ...'
'ले आना भाई ...मैं गाली नहीं दूंगा तुझे फिर कभी ....
'स्साले' भी नहीं बोलूँगा ....
सच्ची...माँ कसम '
'देखूँगा '
'अबे भाई नहीं है ...देख मेरी अम्मा तो मुझे प्यार करती नहीं है...तेरी अम्मा तो तुझे कितना प्यार कराती है ...ले आना भाई'
'नहीं , मेरी अम्मा मुझे प्यार नहीं करती है ...वो किसी से प्यार नहीं करती ..वो दिलावर पे भी चिल्लाती है ...बापू के मरने के अगली रोज जब दिलावर उसके लिए चूड़ियाँ लाया था तो उसने दिलावर से भी कहा था की पटा फेंक कर मारेगी उसे .....और कल उसने मुझे भी पटा फेंक के मार दिया था...सर फट गया था मेरा ...ये देख निसान ...'
'अबे हाँ बे ....गहरा निसान है ...'
'अबे पागल है क्या ...टट्टी के हाँथ से क्यूँ छू रहा है ...''
'सोरी बे सॉरी' (काला लौंडा-धीमी आवाज़ में)
'मादरचोद..' (सूखा लड़का-तेज आवाज़ में)

सूखा लौंडा गन्ना उखाड़ के फेंक रहा था और काला लौंडा दुखी मन से ...उचक के ...दोनों टांगो के बीच से अपनी टट्टी देख रहा था
अचानक से चौंका और चिल्लाया ...
'अबे...'
'अबे...'
'अबे देख ना साले ...'
'क्या यार ...
देखना था ना ....'
सूखा लौंडा गन्ने की ठूंठ उखाड़ने में बिजी था ...

Tuesday, October 20, 2009

बहुत दिनों के बाद ....सजनिया

बहुत दिनों के बाद सजनिया ,
कहा किसी ने कानों में
मिसरी वाली बातें भोली
'मानों या ना मानों ' में
बहुत दिनों के बाद बलम जी ,
हैरानी में 'फुरसत' है
सिले पड़े हैं , बदन, नहीं जी ,
बित्ता भर भी फ़ुरकत है !

बहुत दिनों के बाद , बदन में ,
दर्द उठा है टूटा सा
राणा जी के काँधे पर है ,
दांत किसी का छूटा सा

बहुत दिनों के बाद चले वो ,
बौरानी-बौरानी है
बिना पिए ही झूम रही है ,
हैरानी-हैरानी है

बहुत दिनों के बाद , फसल से ,
खिले बदन के रोए हैं
घुलते-घुलते होठों में कुछ ,
सौ-सौ चुम्बन खोए हैं

बहुत दिनों के बाद शहर के ,
तापमान में गर्मी है
सूख गया है बदन , आज बस ,
दो होंठों में नरमी है

बहुत दिनों के बाद , हिचकियों से
अब थोड़ी राहत है
आँख मले , हैरान ख़ुदा, कि
किन्नी भोली चाहत है

बहुत दिनों के बाद तुम्हारी ,
बाहों में हम सोए हैं
आज अठन्नी जैसे आंसू
हंसी-खुशी में रोए हैं

बहुत दिनों के बाद , हुआ है यकीं ,
'अजी हम ज़िंदा हैं ! '
एक कुड़ी है , नाम मुहब्बत ,
इश्क़ अभी बाशिंदा है !

बहुत दिनों के बाद हिया में ,
धड़कन नहीं , हरारत है
बंद पड़ गयी धड़कन कब की ,
कुछ तो हुई शरारत है....

बहुत दिनों के बाद सजनिया ...

Tuesday, October 13, 2009

सज़ा -ए-आफ़ता...

सज़ा -ए-आफ़ता हैं , गिरफ्तार हैं सनम
हम फसाद-ए-इश्क़ तड़ीपार हैं सनम

एक रोग , एक मर्ज़ ही सियाने हैं
बाकी धंधे निरे चिड़ीमार हैंगे हम

दुनियादारी की गणित में मूर्ख है 'सचान'
दिल्लगी के सिवा उसे कुछ नहीं हज़म

जितनी चाहे उतनी मुहब्बत कराइए
कोई हरा नोट नहीं इश्क़ का ख़सम

तोहमतें लगा लो या जी कहो काइयां
साग , रोटी , झोपड़े दो कौड़ी के वहम

अम्मियों की जूतियों की हमें फ़िक्र क्या
भांग तगड़ी इश्क़ की , कवारे हैं सनम

जान गए , जान के हुए हैं बेशरम
इश्क़ खुदा , खुदा इश्क़ , मिट गए वहम

जो भी चाहे समझो , अपनी राय दीजिए
हमपे कौन से उधार हैं तेरे करम

Saturday, June 13, 2009

चालू है दुनिया , भांप गई ..

कल सुने गजब की बात बनी
सुबहो तक घिस घिस रात छनी
जब कोर चंदनिया हांफ़ गई
चालू है दुनिया , भांप गई ..

सुनते हैं खूब सताया था
फ़िर भी तो नहीं मनाया था
बिन कपड़ा लत्ता कांप गई
चालू है दुनिया , भांप गई ..

होंठन से होंठन चाट गई
जोबन से हारी खाट गई
दांतों से निसानी छाप गई
चालू है दुनिया , भांप गई ..

कल कुछ भी नहीं बिचारे थे
सुनते हैं मुए उंघारे थे
है कहां कहां तिल नाप गई
चालू है दुनिया , भांप गई ...

सुनते हैं कल मजबूरी थी
जी ठंड कड़ाके पूरी थी
तंदूर बदन के ताप गई
चालू है दुनिया , भांप गई .

Monday, June 1, 2009

हमने सुना है मौला आप भगवान हैं......

नीली छतरी हैं आप , यार सरकार हैं
हमने सुना है मौला आप भगवान हैं ।
दुनिया बना के सोए , जागी दरकार है
आप चाहे जो भी करें , सब एहसान है ।
क्या फ़रक आज मर्यादा तार तार है
आपने तो छुट्टी पा ली ख़्वाजा जो महान हैं ।
चकला समाज हुआ , जंग भरमार है
पिघलें ना आप क्योंकि पाहन समान हैं ।
बस जी भरोसा उठा , ऐसे भरतार हैं
आपको दरद काहे आप हलक़ान हैं ।
पीर भी हमारी अरु चोट भी हमार हैं
आपने तो कह दिया ’बिधि का बिधान है’।
छोटे से हिआ मे रचा कपट का भार है
मोहरें सजा के चले छोड़ के मैदान हैं ।
हंस के तमासा देखें . नाहि अधिकार है
काहे रची दुनिया जी मुर्दा-ए-मसान है ।
पूरे हैं ’सैडिस्ट’ आप रूस के वो ’जार’ हैं
ज़िन्दगी दी भाड़े पे , ये मौत भी लगान है ।
नीली छतरी हैं आप , यार सरकार हैं
हमने सुना है मौला आप भगवान हैं...