Saturday, November 19, 2011

तहज़ीब

रफ़ात तहज़ीब के बालों में तेल दे रही थी. उसे तहज़ीब के बाल बे-इंतहा पसंद थे.तहजीब के बालों की खूबसूरती समझाने के लिए तहज़ीब के बाल "घुंघराले" कहे जा सकते हैं लेकिन सिर्फ इतना कह देने से इज़हार-ए-खूबसूरती कुछ कच्ची सी रह जाती है. ऐसे मौकों पर मुझे तमाम मर्तबा लगता है की ज़बान ने इज़हार करने के लिए सटीक शब्द और तरीके अभी तक ईज़ाद नहीं किए हैं.

रफ़ात को उसके बाल, बाल कम पहेली जादा लगते थे. वो अक्सर उन्हें घंटे भर तेल देती रह जाती थी. कुछ-कुछ सोचती रहती थी और उनके लच्छे बनाकार उँगलियों के चारों और घुमाती रहती थी. तकरीबन वैसे ही जैसे फ़िल्मों में दिखाते हैं - जब हीरोइन अपने हीरो से बात करते हुए टेलीफ़ोन के तार को अपनी उँगलियों पर लपेट कर उलझाती रहती है, सुलझाती रहती है.

रफ़ात ने हौले से दोनों घुटनों के बीच में तहज़ीब का सर टिकाया हुआ था, तहज़ीब शायद मालिश करवाते हुए सो ही गई थी. उसका नाम तहज़ीब था तो ज़रूर लेकिन तहज़ीब उसमें नाम भर की भी नहीं थी. पता नहीं माँ- बाप ने नाम कितना सोच के रखा था पर लडकी में बित्ते भर की भी तहज़ीब नहीं थी. उसका अंदाज़-ए-बयान कुछ ऐसा था जैसे की सलीके और अदब को सिरे से लटका कर उलटा टांग दिया गया हो. लेकिन मेरा यकीन मानो, या फिर मानो-या-ना-मानो (मेरी बला से), बूझो-तो-ही-जानो, कि, तहज़ीब से हसीन शरारत कुदरत ने सदियों से नहीं की होगी.

कहते हैं की अफ़गान लडकियां बला की खूबसूरत होती हैं. तहज़ीब को सिर्फ खूबसूरत नहीं का जा सकता था.
शब्द में जान तो है लेकिन खनक नहीं है.
या फिर 'हसीन' कह लो लेकिन इस शब्द में खनक तो है लेकिन धनक नहीं है.

ख़ैर ...ज़बान को उतना भी तकल्लुफ़ और तकलीफ़ ना दूं.

तहज़ीब की उम्र ६ साल की थी. रफात की दो और बेटियाँ थी. बेनाफ्शा और बेहास्ता. बेनाफ्शा ११ की थी और बेहास्ता ९ की. इस लिहाज़ से तहज़ीब रफ़ात की सबसे छोटी बेटी थी.

हफ़ीज़ और रफ़ात ने काफ़ी सोचने और समझने के बाद ये तय किया था की तहज़ीब को लड़का बनना पड़ेगा. तब तक के लिए, जब तक की रफ़ात एक लड़के को जन्म नहीं देती. ये 'सोचना और समझना' जादा देर तक नहीं चला था. हफ़ीज़ ने कहा था की "बचापोशी" के अलावा अब कोई और तरीका नहीं है. ऐसा करने से ख़ुदा जरुर ख़ुश होगा. बरक्कत होगी. लड़कियों को उनका भाई मिलेगा और घर को उसका वारिस. रफ़ात ने भी मना नहीं किया था क्योंकि अफ़गानिस्तान में "बचापोशी" एक बेहद आम बात थी. और ख़ास भी. ख़ास इसलिए क्यूंकि बचापोशी ख़ुदा को ये बताने के लिए बहोत जरुरी था की घर में एक लड़के की कितनी जादा उम्मीद,आस और ज़रूरत है.

"कल तेरे बाल कटा दी जाएँगे", रफ़ात ने कहा.

"क्यूँ"

"कल से तू बाहर खेलने जा सकती है और तुझे लड़कों की पोशाकें पहननी हैं."

तहज़ीब ने दुबारा "क्यूँ" नहीं पूछा. उसकी आँखें चमक गईं. गोल-गोल आँखें. बड़ी-बड़ी बिल्लोरी आँखें.

"मतलब मैं कल से टी-शर्ट पहन सकूंगी ..."

"हाँ"

"और मैं .. लड़कों से लड़ाई भी कर सकूंगी"

"हाँ"

"फ़ुटबाल ?"

"हाँ"

"क्रिकेट ?"

"हाँ"

"तो तुम रो क्यूँ रही हो ?"

"नहीं मैं रो नहीं रही हूँ. कल से बेनाफ्शा और बेहास्ता को बाज़ार ले जाने की ज़िम्मेदारी तेरी होगी और उन्हें जब भी बाहर जाने की ज़रुरत होगी तो तू उन्हें घर के लड़के की तरह लाया-जाया करेगी "

तहज़ीब तुरंत उछल कर गुसलखाने की तरफ भागी. आज खड़े होकर 'सू-सू' करने का मौका था. वैसे वो पहले भी खड़े होकर ही 'सू-सू' किया करती थी लेकिन जब रफ़ात ने उसे कस कर झापड़ मारा था तो उसने ऐसा करना छोड़ दिया था. रफ़ात ने चिल्ला कर कहा था की पता नहीं क्यूँ उसने उसका नाम तहज़ीब रख़ दिया था जबकि तहज़ीब तो उसमे नाम भर की भी नहीं थी (या बस नाम भर को ही तो थी)

तहज़ीब सोच रही थी की अब जब उसका छोटा भाई आएगा तो वो दोनों 'सू-सू' करते हुए पेंच लड़ा सकते हैं और रेस भी लगा सकते हैं. शीशे के सामने खड़े होकर उसने बालों से मूछें बनाकर देखा तो वो पक्का पठान लग रही थी.मालिक भाई की तरह. अगर दाढ़ी और होती तो वो एकदम बादशाह खान की तरह लगती.

तहज़ीब ने एक हाँथ से मूछ संभाली और दुसरे को कमर पर रक्खा. थोड़ा सा आगे की तरफ झुक कर बोली, "ओये पाशा, बादशाह खान बेनज़ीर को छुड़ा कर तो लाएगा ही और तुझे उसी तरह मारेगा जैसे हबीबुल्लाह को मारा था.और इस बात का ख़ुदा गवाह है. क्या समझा... हाएं "


रात में रफ़ात ने हफ़ीज़ से फिर से पूछा, " इस बार लड़का ही होगा ना ?"
हफ़ीज़ ने उसको उसके दोनों गालों को अपनी हथेलियों के बीच में रक्खा, माथे पर एक छोटा सा चुम्बन हिफाज़त से रख़ दिया और कहा, "अल्लाह सब देख रहा है. कायनात में कोई भी इतनी चाहत दिल में सहेज लेता है तो ऊपर से इनकार नहीं आता. मेहर के घर में दो-दो लड़के हुए थे और सकीना के घर में भी लड़का ही हुआ था."
रफ़ात ने आखें बंद कर ली. जैसे की दोनों आँखों से 'आमीन' कहा हो.
हफ़ीज़ ने खिड़की से बाहर देखा तो चाँद निकल आया था जैसे की किसी ने 'क़ुबूल है' कहा हो.

अगले दिन हफ़ीज़ ने जैसे ही तहज़ीब को आवाज़ दी तो वो कूदते फांदते कमरे से बाहर आई. हफ़ीज़ ने साइकल निकाली तो तहज़ीब को कुछ याद आ गया. फ़ौरन उलटे पांव दौड़ पड़ी और गुसलखाने में घुस गई.
फिर से मूछे बनाकर देखा ..
...मुस्कुराई ..
पाशा से फिर से कहा की वो बेनज़ीर को छुड़ा कर लाएगा और उसे भी वैसे ही मारेगा जैसे हबीबुल्लाह को मारा था, और इस बात का ख़ुदा गवाह है"
थोड़ी देर तक कुछ सोचा जैसे कि किसे ने 'क्या क्या करना है' की लिस्ट बनाकर रक्खी हुई हो..

हफ़ीज़ ने उसे मालिक भाई की दूकान पर ले जाकर छोड़ दिया.
"थोड़ी देर में वापस आता हूँ. बाल एकदम छोटे-छोटे काट देना."
उस्मान ने आँखों से कुछ-एक सवालात करने की कोशिश तो की लेकिन हफ़ीज़ की आँखों ने कन्नी काट ली. उस्मान समझ गया.

हफ़ीज़ आखें चुरा कर चला गया.


...



लड़की मलिक भाई कि कुर्सी पर घंटे से बाल कटवाने को जमी हुई थी. उसे सख्त हिदायत दी गई थी कि वो हिलेगी नहीं और बाल कटवाने में मलिक को परेशान नहीं करेगी लेकिन चंचलता उसके भीतर ऐसे कुल-बुलाती थी कि ना निकाली जाए तो लड़की अपनी ही एनर्जी से ऐसे बुद-बुदाने लगे जैसे कि सोडे कि बोतल को तनिक सा हिला के बस छोड़ दिया गया हो.... या फिर... प्रेशर कुकर में मटन डाल के सीटी लगा दी गई हो. दोष इसमें तहज़ीब का नहीं था. बनाने वाला का था. सात आसमान दूर बैठे कलाकार ने अपनी बोरियत दूर करने के लिए तहजीब को बनाया था.

"मलिक भाई .. मैं सोच रहा था कि मेरी मुंडी सीधी है कि नहीं ? मुझे हमेशा लगता है कि मेरी मुंडी टेढ़ी है इधर को? इसको सीधा कर दो ना मलिक भाई ..
ए मलिक भाई ..एक बार चटका दो ना. सब चिढ़ाते हैं मुझको."

"सीधे बैठो .. नहीं तो लगा देंगे उस्तरा अभी.. "

"मलिक भाई कर दो न, छोटा सा काम ही तो बोल रहा हूँ तुमको. सब मुझे "ओए बारह पांच - अबे ओए बारह पांच" कह के बुलाते हैं"

"ठीक करते हैं. तू इसी लायक है"
लेकिन बारह पांच क्यूँ कहते हैं तुझे ?"

"अरे .. घड़ी में जब बारह बज के पांच मिनट हो जाता है तो वो ऐसा दिखता है ना.. मेरी टेढ़ी मुंडी की तरह !"

"क्या बोल रही है तू .. मेरा दिमाग मत खा. मैं बहोत डेंजर आदमी हूँ. सीधे बैठ और मुझे बाल काटने दे. नहीं तो दफा हो यहाँ से. मुझे परेशान मत कर. मेरा उस्तरा हिल गया ना तो काम हो जाएगा तेरा. "

"क्यूँ मलिक भाई ? तुम मेरा मुंडी काट दोगे गुस्सा हो के ? क्या यार.. मैं तो तुमको दोस्त समझता था. सब लोग ठीक ही कहते हैं तुम्हारे बारे में "

तहज़ीब ने रात भर में ही लड़के की तरह बात करना सीख लिया था.

मलिक भाई ने सामने के आईने में तहजीब की शक़ल देखी, गुस्से में मुह बिचका लिया था, ऐसा लग रहा था जैसे की एक समोसा सा छन रहा था. उसे हंसी आ रही थी. लेकिन उसको पता था कि तहजीब की बात में उलझने से अच्छा है कि वो चुप-चाप बाल काट के दफा करे उसको ...पर तहज़ीब उसको बाल काटने ही नहीं दे रहा था. बार बार अपने एक गाल पर अपने हथेली सटा कर दूसरे हाँथ से अपनी मुंडी सीधा करने कि कोशिश कर रही थी. कभी उसको लगता था कि अब सीधा हुआ है मामला , तो फिर अगले ही पल लगता था कि फिर टेढ़ा हो गया साला. परेशान हो के तहज़ीब ने कहा,

"फिर काट ही दो ना मलिक भाई, जब ये साली मुंडी सीधी ही नहीं होती है तो उस्तरे से काट ही दो"

मलिक भाई कि हंसी छूट गई. बोले,
"अरे क्यूँ परेशान होती है मेरी बच्ची , थोड़ी देर सीधे बैठ जा, फिर मैं पक्का रिपेयर कर देगा तुझको. तुझे भी और तेरी मुंडी भी."



दोनों ने शीशे में एक दूसरे को देखा. जैसे कि फ्रेम में लगी हुई कोई बहोत प्यारी सी तस्वीर. जो कि तुम्हारे सबसे हसीन लम्हों को फ्रेम में जड़ के जमाई गई हो. दोनों मुस्कुराए. मलिक भाई ने प्यार से तहज़ीब का सर चूमा और हाँथ फिराया

..

सोडे कि बोतल ऐसे शांत हो गई जैसे कि ढक्कन खोल दिया गया हो. मलिक भाई ने बाल काटते-काटते उसका ताज़ा-ताज़ा-शांत चेहरा आईने में देखा तो उस पर एक बाप की ममता की नई फसल हल-हला उट्ठी थे. लेकिन तहज़ीब ज्यादा देर शांत कहाँ रख सकती थी खुद को.

"मलिक भाई .. मैं सोच रहा था कि जब तुम इतने अच्छे हो तो लोग तुम्हारे बारे में ऐसे-ऐसे क्यूँ बोलते हैं"

मलिक भाई ने ध्यान नहीं दिया. वो अपने हाँथ से लगाम छूटने नहीं देना चाहते थे. बड़ी मुश्किल से तो हाँथ आई थी.

"बोलो ना मलिक भाई, तुमने पाशा की गर्दन में उस्तरा क्यूँ गड़ा दिया था?"

"कौन पाशा? किसके उस्तरा गड़ा दिया था मैंने ?", मलिक भाई सर खुजाते हुए बोले.

"अच्छा .... पाशा! "

"हाँ मलिक भाई ... पाशा... सब कहते हैं की तुमने पाशा की गर्दन में उस्तरा गड़ा दिया था गुस्से में ..."

"अच्छा अगर जो मैंने तेरे को पाशा की कहानी सुनाऊंगा तो तू चुप चाप बाल कटवा लेगा ?... बिना मेरी जान खाए ?"

"हाँ मलिक भाई .. सुनाओ ना कहानी ..."

"अच्छा तो सुनो, पाशा काबुल का बहोत बड़ा डाकू था. पूरा काबुल उससे थर-थर कांपता था. एक बार वो मेरी दूकान में बाल कटवाने आया.
मैंने बोला की ठीक है जी, अपने को क्या लेना देना. हमारा काम है बाल काटना, सो हम काट देंगे. डरते हम किसी के बाप से भी नहीं हैं औ धार हमारे उस्तरे में बराबर थी...."

"तुम एकदम नहीं डरे मलिक भाई ?"

"अरे नहीं ना रे .. तू सीधे बैठ के सुन ना.....

-

हाँ ..तो हुआ ये की दूकान में सबकी तो फट गई, लेकिन हम बोले की हमको लेना एक न देना दो. काम है हमारा बाल काटना, वो हम कर देंगे.
बैठे पाशा इसी कुर्सी पर .. जिसपे अभी तुम बैठी हुई हो. बगल में अपनी बन्दूक टिकाई दो नाल की ... यहीं जहाँ तुमने हाँथ रक्खा हुआ है ..
जब हम पाशा की मालिश करने लगे तो वो बड़ा खुश हो गया. हमको अपनी जिंदगी की तीन-पांच सब बताने लगा.
उन्होंने हमको बताया की साहब हमने डकैती बचपन से ही शुरू कर दी थी. जब हम छह साल के थे तब से. घर में खाने को एक दाना नहीं होता था. सब भूखों मरते थे लेकिन हमको ये बात बर्दाश्त न था. हम जी भर के चुराते थे और खाते थे और मोटे होते थे . धीरे धीरे हमारे शरीर में हांथी भर का बल आता गया. फिर हमने सारा काम बन्दूक की नाल पर करना शुरू कर दिया"

मालिक भाई मैं भी छः साल का हो गया हूँ. मैं खड़े हो कर 'सू-सू' कर सकता हूँ और फ़ुटबाल भी खेल सकता हूँ"

तहजीब को अनसुना करते हुए मालिक भाई बात आगे बढाते हुए बोले, ...
"हाँ तो फिर आगे पाशा ने हमसे कहा कि एक बार की बात है की हमने अपने पड़ोसी की गाय छिना ली सरे आम !!
हमारा कोई कुछ उखाड़ भी ना पाया. उखाड़ता भी तो क्या .."

तहजीब उनकी बात इतने ध्यान से सुन रही थी कि मलिक भाई के लिए तहज़ीब के बाल काटना अब आसान हो चला था, वो एक टक सामने के शीशे में मालिक भाई को देख रही थी और मालिक भाई उसके घुंघराले बाल काट रहे थे

मालिक भाई ने कहानी आगे बढाई...

-

"हाँ तो फिर हमारा माथा ठनका...
हमने उनसे पूछा की पाशा जी .. आपने जो गाय चुराई थी वो क्या जर्सी नसल की थी ?
पाशा ने जवाब दिया, "हाँ"
हमने फिर से पूछा की पाशा वो दिन में कितना लीटर दूध देती थी ..
पाशा ने जवाब दिया "बीस लीटर"
फिर हमने कहा की पाशा जी कहिए तो दाढ़ी भी बना दें आपकी .. बाल एकदम चीमड़ हो गए हैं ...वो बोले की ठीक है यार बना दो ...
तो फिर हम अपना उस्तरा निकाले ..

धीरे धीरे जब उनकी दाढ़ी काटे तो कुछ कुछ शक़ल साफ़ दिखना शुरू हुई...

फिर हम मूछ भी बनाए....

शकल एकदम साफ़ हुई ...

ये तो वही पाशा था ...

... ये तो वही पाशा था जो दस बरस पहले हमारे वालिद से उनकी गाय छीन कर ले गया था. उस समय तो हम बच्चे थे .. कुछ कह ना सके .. आज इसकी गर्दन हमारे हाथ और हमारे उस्तरे के बीच में है ...तो आज इसे नहीं छोड़ेंगे ...बस... घुसा दिया उस्तरा धीरे धीरे ... जैसे मक्खन में में गरम चाक़ू घुसाए हों .. पाशा का वहीँ हो गया इंतकाल

-

ऐसा कहते हुए उन्होंने तहजीब की आखिरी घुंघराली लट भी उस्तरे से काट कर जमीन पर गिरा दी.
तहज़ीब ने बड़ी मुश्किल से गले में अटका हुआ थूंक गटका... बड़ी मुश्किल से हलक के पार गया.
तहज़ीब ने पूछा, "
"तो फिर क्या आपने उसको बिना कुछ कहे ही उसका काम तमाम कर दिया ...?"

-"अरे नहीं रे ... सबक देना तो बहुत जरुरी था ...मारने से पहले हम उसको बताए की बेटा तुम बहुत बड़े गलती कर दिए हो बचपने में ...तुम होगे कहीं के बहुत बड़े डाकू, लेकिन मलिक भाई की एंटी में हाँथ न डालना था तुमको ..."
और बस .. काम तमाम कर दिए उसका .."

कहानी ख़तम होते होते तहज़ीब के बाल भी कट गए थे. मालिक भाई ने चैन की सांस ली. तहजीब आँखें फाड़-फाड़ के उनको देख रही था.

"मलिक भाई ... तुम तो सही में बहोत डेंजर आदमी हो."

मलिक भाई मना नहीं कर सके.

बेशक़ मलिक भाई बेहद डेंजर आदमी थे.

पाशा तो कहानी था लेकिन तहज़ीब सच्चाई थी

पाशा का तो पता नहीं ....मलिक भाई ने तहजीब नाम की लड़की को उस्तरे से ज़रूर कतल किया था एक लड़का बनाने को. बचापोशी के नाम पर ....एक और लड़की को.

अफगान लडकियां बला की खूबसूरत होती हैं .

लेकिन मलिक भाई को पता था की तहज़ीब उसके पास कुछ चार पांच बरस तक ही बाल कटवाने आएगा. उसके बाद जब वो एक औरत जैसा दिखना शुरू हो जाएगा तो उसे फिर से बाल कटवाना बंद करना पड़ेगा. अचानक से एक दिन उसे बता दिया जाएगा की वो एक लड़का नहीं है.. लड़की है. तहज़ीब अपनी बिल्लोरी आँखों से कुछ एक सवालात करेगा लेकिन कोई आमीन नहीं कहेगा,

"क़ुबूल है" नहीं कहेगा.

अक्सर उस्मान भाई सोचते थे की निक़ाह होने के बाद ये 'बचापोश' लड़के लड़कों से शादी करके बसर कैसे करते हैं. जब निक़ाह की पहली रात, पहली दफ़ा उनको एक लड़का छूता होगा तो ये लड़के कैसे सिकुड़ जाते होंगे ? सिकुड़ कर गठरी बन जाते होंगे ?

या फिर नहीं .. ?

असल में हैं तो लड़की ही ...

या फिर नहीं ही हैं ?

फिर मलिक भाई ने सोचा की एक-एक न एक दिन खड़े होकर सू-सू करने की आदत चली ही जाएगी.