Thursday, October 23, 2008

सारी रात



रात,
स्वप्न की कुबड़ी लुगाई
नयन तले झाईं

रात,
नूर धुली कासी
चांद चढ़ा फ़ांसी

रात,
थकी पलकों की छीलन
अशेष नयनोन्मीलन

रात,
चंदा की मुहदिखाई
तारों की परजाई

रात,
करवट की दुकान
बिकाऊ पागल 'सचान'

रात,
गर्भवती दिमाग
प्रसव पीड़ा की जाग

रात,
सज़ा-ए-आफ़्ता गज़ल
खुदा ना खांसता ,बेदखल

रात,
झींगुर की गवाई
ढूंढी तकिया तले पाई

रात,
तेरे खयालों की चरसी
झपकी भर को तरसी

रात,
सब साली बातें
फ़िर भी ज़ाया रातें

" सैंतालिस "

मैं जिस जगह की बात कर रहा हूं वो लाहौर का सबसे जीवंत घर है . जीवंत इस मायने में कि जीवन यहां अपने सम्पूर्ण शबाब पर तकरीबन २५० वर्ग फ़ीट को अस्तित्व देने के अपने धंधे में बाकायदा सफ़ल हो पाया था.इस घर की दीवारों पर तस्वीरें नहीं हैं क्योंकि चेहरों पर तमाम तस्वीरें इतनी आशनाई से हर घड़ी खुशनुमा होती रहती हैं कि उन्हें दीवारों पर टांगने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. छतों पर फ़ानूस नहीं लटकते , कण्डीलें नहीं टंगी हैं क्योंकि यहां उनकी खनक की कमी मुस्कुराहटों से पूरी कर दी जाती है . रईसियत के असबाब भी कमती ही नुमाया हैं क्योंकि यहां उन्हें जुटाने की न तो फ़ुरसत ही है किसी को और ना ही तकल्लुफ़ तनिक सा .
आंगन में नौ वर्ष की एक लड़की बैठी हुई है जो अपनी हंथेलियां एकान्तर क्रम में अलट पलट कर उन पर कभी पत्थर के गोल टुकड़े उछालती संभालती रहती है तो कभी फ़र्श पर एक मंझी हुई न्रित्यांगना की लचक और हनक के साथ चौकोर खानों के बीच लंगड़ी टांग खेल्ने लगती है . कुछ को ये किसी गौरैया का फ़ुदकना लग सकता है और बाकियों को कुछ भी नहीं क्योंकि उनके लिए मासूमियत के चोखे मोहपाश से बाहर निकलकर कुछ भी सोच पाने के स्थिति में खुद को ला पाना बेहद मुश्किल होता .
"बेबे हम कहां जा रहे हैं ? "
"पंजाब !! कितना मज़ा आएगा ना , मैंने ना वहां भी सारा दिन गोटियां ही खेलनी हैं और जब थक जाऊंगी ना तो खेलूंगी लंगड़ी टांग ....और फ़िर भी थक गई ना तो ....तो टांग बदल कर खेलूंगी लंगड़ी टांग ."
"एक दो तीन चार पांच ....पांचवां खाना ....
पांच चार तीन दो एक....घर - धप "
फ़िर लड़की कुछ गहरी सोच में कान पर हिफ़ाज़त से अटकी एक घुंघराली लट निकालकर उस पर उंगली से छल्ले बनाने लगी और अगले ही क्षण सारे छल्लों के एक लाइन में खींचकर होंठ पर मूंछ जैसी लगाकर खुद से बोली , "लेकिन दोनों टांगे थक गईं तब...तब तू क्या करेगी मंजीते?"
"मां ...क्या करूंगी मैं तब ? "
"तब मैं तेरे साथ खेलूंगी ...तू खेलेगी ना मेरे साथ बेबे....मेरी अच्छी बेबे..."
"हां मेरी चिड़ी ,खेलूंगी तेरे साथ. अच्छा ये ले , इसे चुन्नी के छोर से बांध ले अपनी "
"क्या है इस पुड़िया में बेबे ? "
"जादूगरनी की पुड़िया है मंजीते , जादूगरनी ने कहा था कि जब भी कलेजा घबराए तो एक सांस में फ़ांक लेना पूरी और चुटकी में सब चंगा "
"सब चंगा..!! जादूगरनी बेबे का चूरन "
लड़की हंसी और अगले ही पल आंख नचाती हुई बोली ....
"लेकिन मां ये छुरी क्यों बांधनी है कुर्ती से ? मैंने क्या कोई सब्जियां छीलनी हैं अम्रितसर जाकर . मैंने नी करना कोई काम वाम वहां ...बताए देती हूं बेबे "
"हां रे मेरी गुड़िया . बस ऐनू बांध ले तू . सिखणियां बांधती हैं ना इसे और तू है ना लाहौर की शेरनी "
लड़की सगर्व मुस्कुराती है ..."लाहौर की शेरनी....मंजीत कौर"
बताना मुश्किल होता है कि ऐसे में स्त्री-सुलभ गर्व अधिक खूबसूरत दिखता है या फ़िर मुस्कुराहट . लड़की फ़िर से खेलने में मशगूल हो गई .
"एक दो तीन चार पांच ....पांचवां खाना ....
पांच चार तीन दो एक....घर - धप "
"अरे कौन है दरवाज़े पर ? ...अरे भई इतनी ज़ोर से मत पीटो कुंडी किवाड़ ही टूट जाए....आ रही हूं ना "
"अरे कहा ना मत पीटो "
बेबे ने मंजी की बांह पकड़ कर उसे झटके से पीछे खींच लिया .
"नहीं खोलना दरवाज़ा , अंदर चल चुपचाप "
"नहीं खोलूं दरवाज़ा ? अरे देखने दे ना कौन है "
क्या...! अरे देखने दे ना "
बेबे उसे खींचकर घर के सबसे भीतर वाले कमरे में ले गई और किवाड़ सांकल से सटा दिए . धीरे धीरे शोर बढ़ने लगा , जैसे किसी हुज़ूम की आवाजें एक दूसरे के कंधे पर चढ़कर बहुत ऊंची चढ़ती जा रही हों .
"बेबे क्या हो रहा है बाहर ..ये लोग दरवाज़ा क्यों पीट रहे हैं ...
मां तू इतना कांप क्यों रही है ?
अरे कोई नहीं है मां , शायद दारजी होंगे दरवाज़े पर , मैं देख कर आती हूं अभी ..."
लड़की उठती कि उससे पहले भीड़ ने खिड़कियों से मशालें और पत्थर फ़ेंकना शुरू कर दिया था . दरवाज़े पर लट्ठों से लगातर ठोकरें मारी जा रही थीं .
अब तक मंजीत को भी समझ आना शुरू हो गया था कि मामला क्या है .
फ़िर भी लड़की मुस्कुराई ...लेकिन थोड़ा मुश्किल से .
"अरे मां तू डर मत ना और अपने पास वो पुड़िया भी है ना ..."
उसकी आंखों में चमक सी आई . मानों कोई तरीका मिल गया हो उनसे निबटने का .
मां ने भी ज़बरदस्ती मुस्कुराने की कोशिश की और मुस्कुराने में सफ़ल भी हुई . मंजीत को मानो थोड़ा सा आश्वासन सा मिला कि हां वाकई पुड़िया में कुछ तो मंतर है जो उनका डर चुटकी में खतम कर देगा . दोनों ने चुन्नी के छोर से चूरन निकाला और एक झटके में हलक के नीचे धकेल दिया . पुड़िया में सचमुच मंतर था .
असर भी दिखा , दोनों का शरीर धीरे धीरे अकड़ना शुरू हो गया , गठरियां सी गुंथने लगीं . अंतणियां शायद चूरन हज़म नहीं करना चाहती थीं इसलिए सफ़ेद झाग के रूप में उसे मुंह के बाहर पम्प करने लगीं .
लेकिन एक बात तो तय थी कि उसमें मंतर था और डर सचमुच कम हो रहा था . वजह ये थी कि दिमाग के नसें इतनी शिथिल पड़ चुकी थीं कि उन्होंने 'डर' लव्ज़ का आगा पीछा सोचने में असमर्थता जता दी थी. हुज़ूम पागल हो रहा था .अब यहां पर एक दौड़ सी शुरू हो गई थी . दौड़ में हिस्सा लेने वाले तीन थे . छूटती हिम्मत , उखड़ती सांसें और टूटते दरवाज़े . दुर्भाग्य से दौड़ में सबसे आगे थे टूटते दरवाज़े और सबसे पीछे रह गई थी छूटती हुई हिम्मत . इतना भी तय था कि घर का अखिरी दरवाज़ा आखिरी सांस उखड़ने के पहले ही टूट जाता ... या शायद और भी बहुत पहले .
ज़बान से से कानों तक शब्द फ़ेंकने के लिए बहुत हिमम्त और मेहनत की ज़रूरत थी फ़िर भी मंजीत ने दोनों ज़रूरी चीज़ें बटोर कर कहा , " अभी भी डर लग रहा है...तेरी पुड़िया से कुछ नहीं होता "
कम्बख़्त ज़हर भी चोखा नहीं था . सिखणी ने कातर निगाहों से बच्ची को ऐसे देखा मानों उसका झूठ पकड़ा गया हो . शरीर में बची खुची सारी हिमम्त जुटाकर टीन का डिब्बा उठाया , तीन चौथाई मंजीत पर और एक चौथाई खुद पर उड़ेला . मंजीत पर थोड़ा ज्यादा , ताकि वो आसानी से जल सके और खुद पर कमती इसलिए ताकि वह भी जल सके , सुकून से ना सही ...थोड़ी मुश्किल से ही सही ...मगर जल सके . तीली दी गई...दोनों भम्म से जलने लगीं और अगले ही क्षण हुज़ूम ने आखिरी दरवाज़ा भी तोड़ दिया .
हुज़ूम हैरान था , सब के सब सन्न ...कोई हरकत नहीं . फटी आंखों में आग की लपटें आसानी से दिखाई पड़ रही थीं .
" अरे क्या सांप सूंघ गया है हरामियों ?
सोचते क्या हो ?
कुछ सांसे बाकी रह गई हैं सिखणियों में ...
देखते नहीं , अभी भी हरकतें हो रही हैं "
ललकार ने असर दिखाया , हुज़ूम का मौन टूटा .
मयानों से कुछ तलवारें निकाली गईं . दो जलते शरीर संख्या में चार कर दिए गए .
दो जनाने शरीर ....
सौभाग्य से छटपटाने में असमर्थ .
दो जनाने धड़ ....
दुर्भाग्य से छटपटाने में समर्थ .
और बीच में खून की फूटती लाल धार लेकिन इतनी पर्याप्त नहीं कि आग को बुझा सके .
लपट चिढ़ती जरूर थी लेकिन एक छौंक के साथ फ़िर से जलने लगती थी .
लाहौर का सबसे जीवंत घर सैंतालिस की भेंट चढ़ चुका था
और बाकी तमाम चढ़ने की तैयारी में थे.

Friday, September 12, 2008

टोपाज़

उसे मैंने यूनीवर्सिटी के चाय कार्नर पर तमाम बार देखा और लगभग उतनी ही बार नज़रन्दाज़ भी किया . वजह ये थी कि वो किसी भी आलसी लेखक की दिमागी शिराओं से खेलने में सिद्धहस्त था . अपनी वेशभूषा और हरकत मात्र से वो चाय के साथ इतने सवाल छोड़ सकता था कि चाय उस रिवाज़ के साथ पी ही नहीं जा सकती थी जिस रिवाज़ से पीने का मैं शौकीन हूं . वो बिना शर्ट के लम्बे गले के दो ऊनी कत्थई स्वेटर , घुटने तक मुड़ी ख़ाकी पैंट में अपनी हरी पालीथीन के साथ कटिंग का कुल्हड़ लिए अमूमन दिख जाता था .यूनीवर्सिटी की लड़कियों को दरकिनार करके उसे घूरना दुस्साहस भी कहलाता , बेवकूफ़ी भी और ध्रिष्टता भी इसलिए मैंने कभी भी उसे इससे ज्यादा गौर से नहीं देखा था. वो अक्सर खुद की लिखी किसी कहानी या फ़िर अपने किसी नाटक की स्क्रिप्ट के साथ एक कटिंग पर घंटों गुजार दिया करता था .
उसके बारे में कालेज में कई तरह की बातें थीं , जैसे कि वो कुछ वर्ष पहले अपना मानसिक संतुलन खो बैठा था फ़िर भी वो पूरा पागल नहीं था बस थोड़ा सनकी था , वो मेकैनिकल डिपार्टमेंट में १२ वर्ष प्रोफ़ेसर रह चुका था और थिएटर का ख़ासा शौकीन हुआ करता था .मेरा ताल्लुक उससे बस इतना था कि उसने मुझे कुछ एक बार अपने नाटक की स्क्रिप्ट थमा दी थी जो की वो साप्ताहिक तौर पर लिखता था और कुछ एक लोगों को बांटकर उनकी टिप्पणियां जानने की कोशिश करता था . इस लिहाज़ से मेरे लिए उसे पागल मान लेना असंभव था और यदि संभव था भी तो मैं मानना नहीं चाहता था.
आज पूरे चाय कार्नर पर ग्राहकों के नाम पर बस दो लोग थे ...मैं और वो स्क्रिप्ट रायटर . 'वो' कहना बहुत अजीब लग रहा है इसलिए आगे से मैं उसे रायटर कह कर संबोधित करूंगा पर शब्द के वज़न से आप ये मत भूलिएगा कि वो था तो आखिरकार एक पागल ही .
रायटर अपने चाय के गिलास के उत्तल और अवतल हिस्से के आर पार मुझे झांक रहा था .मुझे इस बात का इल्म तो था लेकिन मैं नहीं चाहता था कि उसे भी इस बात की जानकारी हो और वो आकर मुझे तंग करे . ख़ैर फ़िर भी वो उठा और साधिकार मेरे बगल में आकर बैठ गया .
"पढ़ो इसे" ...उसने हरी पालिथीन से अपने नई स्क्रिप्ट निकाल कर मुझसे कहा .
"क्या है ? "
"अरे स्क्रिप्ट है...इस बार थोड़ा थर्ड फ़ार्म में लिखा है क्योंकि नाटक के फ़र्स्ट और सेकेण्ड फ़ार्म में मुझे वो गहराई नुमायां नहीं होती . शब्दों के बीचों बीच नज़र और दिमाग को कसरत ही ना करनी पड़े तो बात ही क्या ! "
"मुझे तुम्हारी लिखावट समझ मे नहीं आती , तुम ही पढ़ दो "
" लिखावट समझ मे नहीं आती !!! ...फ़िर मेरी बाकी स्क्रिप्ट्स पर तुमने जो प्ले बनाए हैं ...वो कैसे ? "
"तुम्हारी स्क्रिप्ट पर ! नहीं जी ..मैं खुद लिखता हूं या फ़िर बड़े बड़े नाटककार जैसे विजय तेंदुलकर , महेश दत्तानी , महेश अलकुंचवर और बादल सरकार के प्ले उठाता हूं ...नाम सुने होंगे शायद ..."
"हां....तेंदुलकर जी के हर नाटक का केंद्र बिंदु एक सताई हुई औरत होती है , बादल बाबू ज़रूर कुछ तगड़े थे , महेश को मैंने ज्यादा पढ़ा नहीं क्योंकि उसकी सोच पर मुझे पश्चिम की छौंक पसन्द नहीं आती "
मैं अवाक भी था और हैरान भी . उससे ये मेरा दूसरा कन्वर्सेशन ही था लेकिन मैं ये निश्चित नहीं कर पा रहा था कि उमर के अर्ध शतक के उस पार खड़ी वो चीज़ आखिर थी क्या . ख़ैर बीच बीच में वो कुछ ऐसी हरकतें कर जाता था कि मुझे पक्का हो जाता था कि वो चीज़ क्या थी....'पागल' और क्या....क्योंकि वो नाक में उंगली से कुछ खोज- खोद करने के पश्चात उसी उंगली से कान खुजाता और फ़िर उसी उंगली से समोसे का आलू खोद खोद कर खाने लग जाता .
"तुम्हीं पढ़ दो ना यार ...."
"ठीक है, मैं सुना देता हूं पढ़कर .नाटक का शीर्षक है-'स्वर्ग में परमाणु परीक्षण'
"क्या ? "
"स्वर्ग में परमाणु परीक्षण "
"चिगो चिध चिन-चिगो चिध चिन...इन्द्रदेव सावधान ! हमारे खूफ़िया राडार ने पता लगाया है कि काशीराम और मायावती का ब्रेक अप हो गया है . जुलाब की दवाओं की आकस्मिक कमी आ पड़ी है इअलिए स्वर्ग के पोखर में पोखरण करना ज़रूरी हो गया है .चिगो चिध चिन-चिगो चिध चिन !..चित्रगुप्त सावधान ....यमराज के भैंसे से कह दो कि वो पोखर में पानी पीने ना जाए क्योंकि कोबाल्ट के रडिएशन से उसके दिमाग में छेद हो सकता है . "
"अभी सिर्फ़ प्लाट ही लिखा है ..शायद समझ नहीं पा रहे होगे....असल में थर्ड फ़ार्म के कुछ कंस्ट्रेंट्स होते हैं ना.. "
थर्ड फ़ार्म .... ? बाबा जी का घंटा ...क्या था ये ? ऐसा वाहियात इंसान पागल ही हो सकता है .
काश इन्हीं शब्दों में मैं उसे टिप्पणी दे पाया होता फ़िर भी मुझे एक सुरक्षित पालीटिकल जवाब देना पड़ा..."अच्छा है"
"ख़ैर इसे छोड़ो...मैं एक और बात सोच रहा था ..."
अब क्या....!!!
" डू यू थिंक दैट द वैल्यू आफ़ जी वाज़ ९.८१ ऐट द टाइम आफ़ महाभारत ? "
"जी ? "
"येस...'जी' ....ग्रेविटेशनल कांस्टैंट ...यू मस्ट नो ना ..."
"अच्छा...जी...या या...दैट मस्ट बी "
"देन हाउ कम भीम लिफ़्ट अ ट्वेंटी क्विंटल ट्री ? ..आई कैन प्रूव दैट इट वाज़ वैरिएबल.... बिफ़ोर लिफ़्टिंग इट ही यूज्ड टू चेंज इट टू जी बाए हंड्रेड . "
"जी जी.."
"चलो अच्छा चलता हूं .सोमवार को हैदराबाद गेट पर टोपाज़ का ग्यारवां शो होगा , देखने ज़रूर आना , कुछ सीखने को मिलेगा "
"जी ठीक .."
"जी ! ...जी ? ...९.८१ ? "
चार दिन बाद ...हैदराबाद गेट ...

"चिगो चिध चिन- चिगो चिध चिन "
"सावधान सावधान ...
कला के कई प्रकार
ना कोई आकार
फ़िर भी साकार
करने को बूढ़ा कलाकार
तालियां मेरा भोजन
तालियां मेरा आहार
पेट भर तालियां , छोटी मोटी गालियां
बजाओ ताली...
चिगो चिध चिन , चिगो चिध चिन "
थोड़ी बहुत भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी और उसे ये समझने में वक्त नहीं लगा था कि आज फ़िर टोपाज़ का शो करने के लिए प्रोफ़ेसर हल्ला मचा रहा है .उसके इर्द गिर्द जमा होने वाली भीड़ में सिर्फ़ नए लोग ही होते थे क्योंकि वो पिछले तीन महीने से वही नाटक करने के लिए यूनीवर्सिटी के अलग अलग चौराहों पर ढोल लेकर पहुंच जाता था . फ़िर भी भीड़ का एक ख़ास स्वभाव होता है कि वो जमा बिना किसी वज़ह के होती है और तितर बितर किसी ख़ास वज़ह से ही होती है इसलिए वो हमेशा ४०-५० लोगों को इकट्ठा करने में सफ़ल हो जाता था . नए लोग ये जानने के लिए खड़े थे कि ये क्या करने वाला है और पुराने लोग ये जानने के लिए कि ये आज नया क्या करने वाला है .
"मैं हूं लेखक बड़ा अनोखा
मेरा लिक्खा सबसे चोखा
खुद ही लिखता
खुद ही पढ़ता
बड़े शौक से खुदी फ़ाड़ता
मेरी शैली सबसे भिन्न
चिगो चिध चिन्न , चिगो चिध चिन्न
नाटक का नाम है - 'टोपाज़ '
बजाओ ताली ...."
भीड़ जमा होती देख दो यूनीवर्सिटी के गार्ड उसकी ओर बढ़े .
"ए प्रोफ़ेसर, चल भाग यहां से "
"चले आए पोखरण के चौकीदार , देखो क्लाइमैक्स है , तमीज़ से हो जाने दो , चलो तुम भी खड़े हो जाओ वहां ...चिगो चिध चिन ..चिगो चिध चिन "
"अबे भैंचो हटता है कि नहीं "
"बोला ना कि क्लाइमैक्स है नाटक का "
"अबे हां पता है तेरा क्लाइमैक्स ,हर हफ़्ते देखते हैं कि क्लैमैक्स मे कलाकार अपना हांथ टोपाज़ से काट लेता है "
" अरे आज़ कहानी में ट्विस्ट है ...कलाकार क्या करता है कि..."
"अबे हां हां पता है ...चल भाग "
"अरे...कलाकार अपने जेब से टोपाज़ निकालता है ...क्या ? ...टोपाज़ ...और फ़िर टोपाज़ से अपनी कलाई की नस काट लेता है...ये दाहिने हांथ की और ये बांएं हांथ की
फ़िर जनता को जाता है सांप सूंघ
क्या बीच बज़ार हो गया खून ?
जनता बजाती है ज़ोरदार ताली
ज़ोरदार ताली छोटी मोटी गाली
जनता को जाता है सांप सूंघ
क्या बीच बज़ार हो गया खून ?
चिगो चिध चिन चिगो चिध चिन "
इतना कह के प्रोफ़ेसर सांस रोक कर सड़क पर लेट जाता है .
"अबे हां ठीक है ...अब चल भाग यहां से "
एक आध मिनट में भीड़ भी छट जाती है और प्रोफ़ेसर भी उठ खड़ा होता है . अपनी हरी पालीथीन उठाता है और चल देता है .
थोड़ी दूर पर जाकर उसी चाय कार्नर पर जाकर बैठ जाता है .
"साले ने सब चौपट कर दिया , दो मिनट और चल जाने देता तो क्या बिगड़ जाता साले का
, अरे साला जनता को तालियां तो बजाने देता , साला नाटक में ट्विस्ट आना अभी बाकी था ना . लोग आज पक्के से तालियां बजाते ज़ोरदार तालियां ..."
उसके कत्थई स्वेटर की स्लीव्स पर कत्थई रंग और गहरा होकर तेजी से चढ़ने लगता है ..
गहरा भूरा...
गहरा कत्थई..
गहरा लाल-काला....
आज सचमुच नाटक में ट्विस्ट था...
किसी ने ध्यान ही नहीं दिया ...
टोपाज़...

Tuesday, September 9, 2008

"पेशवा बाजी राव "

कहानी का समय १९७५ का आषाढ़ और स्थान ग्वालियर में एक लेखपाल का दो मंजिला घर और संख्या तकरीबन ढाई भोले भाले जीव. चेखव, उसकी मां और बाउ जी.
"मां आज मेरे लिए क्या बनाने वाली है ?"
"कढ़ी.."
"बढियां ! ..लेकिन देख मां , हमेशा की तरह कम खट्टा नहीं चलेगा मुझे . आज सब चीज चंगी चाहिए मुझे . भात भी बनाना , चौबे जी कहते हैं कि उनकी तंदुरुस्ती का राज कढ़ी और भात है "
और फ़िर चेखव की चिर परिचित खिल खिलाहट , जो कि किसी प्राइमरी पाठशाला में क्लास ख़त्म होने पर बजने वाले घंटे सी प्रतीत होती थी .
"मां ग्वालियर नरेश को आवाज़ लगाना, मैं अभी कमरे में जाकर पाठ याद करने जा रहा हूं.कल यदि पटवर्धन चौबे जी को याद कर के नहीं सुनाया तो कहेंगे-
"मूर्ख चेखव , हांथ आगे तो करो ज़रा. तुम्हारी हंथेलियों और हमारी बेंत की संगत की जाए तो देखो कैसे बिना तबले के कहरवा के बोल निकल आते हैं ! "
पुनः वही हंसी और हंसी का पीछा करते करते पंजों पर भागते हुए चेखव अपने कमरे में चला गया और वहां कुछ काल्पनिक गड्ढों को फ़ांद कर बचते बचाते अपनी खाट पर कूद गया.
एक गहरी सांस ली , आदतन नाखून से तीन बार नाक खुरची और स्कूल बैग से चार पन्ने निकाल कर कुछ लाइनें रटने लगा .
चेखव शीशे के सामने जाता , पेट पर हांथ फिराता , भिखारियों के से चेहरे बनाता और फ़िर शीशे में झांक कर अपनी लाइनें रटने लगता. भूल जाता तो आप ही गाल पर तमाचा और यदि याद रह जाता तो खुद ही पीठ पर शाबाशी की थपकी.
" अरे ओ ग्वालियर नरेश..नीचे आ...खाना लगा दिया है"
"आया मां "
चेखव ने झट से पन्ने अपने झोले मे सुरक्षित रखे और कुछ बड़ बड़ाते हुए नीचे आ गया .
छोटी चटाई पर पालथी मारी, जंघा पर पटवर्धन जी के कहरवा के बोल जैसा त्रिताल का ठोंका बजाया और कढ़ी की कटोरी के ठीक तीन इंच ऊपर अपनी नाक ले जा कर ज़ोर से सांस खींची , मानो आज मुह से नहीं अपितु नाक से खा जाने का इरादा हो .
"मां ...मां ,,मैंने कहा था ना कि कढ़ी खट्टी बनाना और देख भात भी कैसा चीमड़ हो रक्खा है . मैं नहीं खाता. "
"कहां ? देखूं तो...अरे मैंने तो कच्चे आम की फ़ांकें भी डाली थीं और कहता है कि खट्टा नहीं है ! चुप चाप खाता है कि नहीं ..ठहर वहीं ...आती हूं अभी . "
मां के आने से पहले ही चेखव अपने कमरे में जा चुका था .
"कैसा अजीब लड़का है ये . कल दोपहर से अजीब अजीब हरकतें.कभी शीशे के सामने चेहरे बनाता है तो कभी मुआ जंगलियों की तरह पेट पर हांथ फ़िराकर चिल्लाता है ,पेशवा बाजीराव ..."
"खाना लगवाता है और फ़िर बिना कुछ खाए भाग जाता है . कभी छत पर रोटियां मिलती हैं तो कभी खाट के नीचे से "
अगला दिन..पट्वर्धन चौबे जी का क्लास ...
चौबे जी को घेरे में लिए ७वीं कक्षा के छात्र बमुश्किल खड़े थे. बमुश्किल इसलिए क्यूंकि उत्साह के अतिरेक को काबू में रखने के एवज़ में उनके कूल्हे लगातार मटक रहे थे और वो अपने पंजों पर बार बार उछल उछल कर अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे थे .
माज़रा ये था कि चौबे जी 'पेशवा बाजी राव' नामक नाटक के लिए लौंडों के ओडीशन ले रहे थे.
"मैं मलाठा पेतवा बादीलाव छल्तनत का पत्ता पत्ता अपने निगाह में लक्खूंगा औल मेली नाक के नीचे थुलाफ़ांते तलने की तोशिश भी मत तलना"
तोतले बाजी राव की तोतली सिंह गर्जना सुनकर चौबे जी के लिये अपनी हंसी को रोक पाना उतना ही मुश्किल था जितना की दर्जन भर गुझिया खाने के बाद उनके लिए अपनी डकार रोक पाना होता फ़िर भी तम्बाकू रंगे अधरों के कोने से हंसी का मंद मंद तार सप्तक रिलीज कर के बोले..
"अगला छात्र..."
लड़कों का उत्साह देखते ही बनता था . सब अपने अपने मन का पात्र चुन कर उसकी हू-ब-हू नकल करने की कोशिश कर रहे थे .
अपने बारी आने पर चेखव भी आगे बढा़...आदतन गहरी सांस ..तीन बार नाक खुजाना और फ़िर..
"पेशवा बाजी राव साहब आपका काम सिरफ़ सल्तनत में गुनाह रोकना नहीं है. तीन दिनों से जिन हलक़ के रास्ते अन्न का एक निवाला भी नहीं गया उनकी सुध आपको आएगी भी या नहीं ?आप क्या जानें कि जब हांथ और होंठ के बीच से निवाला छीन लिया जाता है तो क्या बीतती है "
"अरे तेज बोलो मूर्ख . आडिटोरियम में तुम्हारी आवाज़ जब पहली पंक्ति तक भी ना पहुंचेगी तो फ़िर बेज्जती तो होगी पटवर्धन चौबे जी की..वो भी भरे सभागार में "
"पर गुरु जी वो बात ये है कि ..."
"मैंने तीन दिन से कुछ खाया ही नहीं ..ताकि ..."
"गणित कम समझाओ गौरैया ...खाना तुम्हें भरपेट मिला है. नहीं मिला है तो उस देहाती को. समझे..."
"मैंने सचमुच खाना नहीं खाया गुरूजी ...जिससे की मैं ...."
"अरे चलो भी जी...अगला "
चेखव को बहोत गुस्सा आया. जी किया की उनके स्थूल उदर में सुई चुभो कर हवा छोड़ते गुब्बारे जैसा दुनिया से रुख़सत करा दे लेकिन कुछ कह नहीं पाया.ड्रामे के सभी पात्र चुन लिए गए .
चेखव घंटों सड़क पर टहलता रहा . क्रोध , उपेक्षा , कुंठा और दु:ख का सम्मिश्रित भाव चेहरे पर लिए कभी ईंट के टुकडों के लात से मारता तो कभी हांथ से उठा कर खंभों पर मारता.
फ़िर थक कर किनारे बैठ गया . अचानक उसकी नज़र एक भिखारन पर अटक गई जो आधी रोटी लिए टूंग रही थी.
लड़के के दिमाग में पता नहीं क्या आया ...पागल पन था अथवा ख़ुमार..या फ़िर कुंठा..
ठीक ठीक पता नहीं...
चेखव उठा और बुश्कर्ट की बटनें खोल कर उसे झोले में डाला ...बाल बिखेरे..चेहर पर मुट्ठी भर धूल लपेटी ...और अगले ही क्षण उस बुढ़िया के पास जा पहुंचा ...
बोला..."पेशवा बाजी राव साहब आपका काम सिरफ़ सल्तनत में गुनाह रोकना नहीं है. तीन दिनों से जिन हलक़ के रास्ते अन्न का एक निवाला भी नहीं गया उनकी सुध आपको आएगी भी या नहीं ?आप क्या जानें कि जब हांथ और होंठ के बीच से निवाला छीन लिया जाता है तो क्या बीतती है "
बुढ़िया उसे एक टक घूरती रही...निरुत्तर ...
चेखव पुनः बोला..."पेशवा बाजी राव साहब आपका काम सिरफ़ सल्तनत में गुनाह रोकना नहीं है. तीन दिनों से जिन हलक़ के रास्ते अन्न का एक निवाला भी नहीं गया उनकी सुध आपको आएगी भी या नहीं ?आप क्या जानें कि जब हांथ और होंठ के बीच से निवाला छीन लिया जाता है तो क्या बीतती है "
"अरे ओ पेशवा बाजीराव..."
बुढिया को कुछ समझ में तो नहीं आया लेकिन ममता के वशीभूत उसने अपनी आधी रोटी चेखव को थमा दी.चेखव मुस्कुराया ...उसी चिर परिचित अन्दाज में ...वैसी ही पाठशाला के घंटे की आवाज़...लेकिन इस बार कक्षा ख़तम होने की नहीं अपितु मध्यांतर अथवा छुट्टी की लंबी घंटी..."
उसे लगा कि नाटक में रोल के लिए उसे चुना जा चुका था....

Sunday, August 24, 2008

मंत्र मंत्र मातरा मंतव्य मारता
कपोल कल्पना कुतर्क कथ्य काटता
खु़मार ख़ांसता ख़राशें खोदता ख़ुदा
गोपनीय गर्भित गन्तव्य ग़ुमशुदा.

Saturday, July 19, 2008

दो गोल काली कश्तियां

एक जोड़ा मुकम्मल,फ़ीका चांद
कतरनों से बुने त्रिपाल
ख़ुसरो की रूबाई
या फ़िर उसके ही
अनाथ पड़े फ़िरदौस जैसा कुछ
बेहिसाब, बेहिज़ाब-बेजान
गुमां , हया और अदा
जैसे कई नामों वली
दिन भर हैरान
परेशान
लटटू सी नाचतीं
दो दशकों से
गश्त लगातीं
दो गोल काली कश्तियां
कई बूंद तकदीर की
पिघली हुई आशनाई
पलकें ..? या फ़िर ..
चाटुकारिता के पैबंद ...
कुल मिला कर कहूं
तो..
मेरी ही आंखें..

ओस के इस नशेमन में
कभी तुम भी रहा करती थीं
साधिकार..सगर्व..
अपना ही घरौंदा मानकर
पूरे हक़ से
आजकल तो गाहे बगाहे
सावन और जेठ में ही
आया करती हो
और दो माह का
किराया देना भी नहीं भूलती..
शायद भूल गई हो
कि ये आंखे तुम्हारा ही
घरौंदा हुआ करती थीं
और ये पलकें
उसी के तिनके
अब जो ये बूढ़ा चांद और
दो गोल काली भटकती कश्तियां
नज़र आती हैं..
कभी उनमें भी
ज़िन्दगी की
चहल पहल हुआ करती थी..



Saturday, June 14, 2008

मुसव्विर का ... सीला सा तसव्वुर...

सुदूर उत्तर
कू--यार
ख़ुर्शीद की बस्ती
मकान नम्बर सात
नीली हवेली
पेशे से कोई मुसव्विर
आंगन के पिछवाड़े
आकाश-गंगा का धोभी-घाट
मरासिमों के खंभों का बांधता
बिजली का एक नंगा तार
और उस पर..
निचोड़ कर टांगा हुआ
उसी मुसव्विर का एक
सीला सा तसव्वुर
चटकती सुबहो से
कल देर शब तक सूखता रहा
और धरती वाले
उसी की सीलन में
जी भर के भीगते रहे
कुछ धोखा सा हुआ है शायद
कि आज फ़िर
बेपनाह बारिश हुई है....

Sunday, May 11, 2008

for mothers day ..

तुझे याद है मां जब तुमने पहली बार कितनी मिन्नतों के बाद मुझे साग के दो कौर खिलाए थे . मैं घंटों तेरे चक्कर काटता रहता था और तेरे हांथों में निवाले वैसे के वैसे ...बिना चक्खे.. मुझे घूरते , चिढ़ाते रहते थे . और मैं उनकी शक्लें ऐसे देखा करता था गौया नीम की चटनी में परोसे गए हों . फ़िर भी तेरे कहने पर मैंने पहला कौरा जैसे तैसे निगला ..फ़िर दूसरा ..मैं कैसे अजीब से चेहरे बनाया करता था ना.
फ़िर तुमने पूछा कि कैसा है ..
मैंने कहा .."मीठा"
तुम हंसी थी ना ..
तुमने दुबारा पूछा..और मैंने दुबारा कहा कि हां ..मीठा ही तो.

......

आज काफ़ी सालों के बाद फ़िर किसी ने वैसा ही साग बना कर सामने रक्खा तो सचमुच तेरी याद आ गई .मैंने बड़े मन से साग का बड़ा सा निवाला खाया..
इश..
ये साग इतना तीता क्यूं है ..मैंने पूछा ...
उसने बोला ..
साग तीता ही होता है !!

.......

सच बोल ना मा...उस दिन भी तूने धोखे से अपनी उंगली ही चखाई थी ना...

Sunday, April 6, 2008

पोस्टमार्टम

कल एक कत्ल हुआ है
एक शायर का
सुबूत के नाम पर
एक नज़र पड़ी मिली थी
जिसकी शकल किसी खंज़र से
काफ़ी कुछ मिलती सी थी
मुस्कुराती सी लाश की धड़कनें
रफ़्तार के नए गुमान में
अभी तक शायर के सीने पर
तालियां दे रही थीं
बेचारे की गूंगी कलम की ज़ुबान
किसी के लबों से सिली हुई
पाई गई ..
खैर..
अब उसकी नज़्में
सनाथ हो गई हैं
कुछ मायनों में अनाथ भी
स्याही ने खुशी खुशी
पन्नों का सफ़ेद वैधव्य त्याग दिया है
बेचारे के शब्दों का कुनबा
असंख्य से घट कर
ढ़ाई मात्र रह गया
कल्पना के पर शायर ने
कल ही तो कुतरे हैं
अधूरी पड़ी गज़लें खुद ही
अपना अन्त बांछा करती हैं
इर्शादों का टोटका भी
उसे बचा नहीं पाया
अर्ज़ की फ़ुरसत उसे रही नहीं
शुक्रिया की तहज़ीब भी उसने
कल ही तो त्यागी है
बेचारा शायर आजकल
पन्ने फ़ाड़ता फ़ेंकता रहता है
अपने अभागे मिसरों की चिंदियां
उसे सुकून देने लगी हैं
सुनने में आया कि
कल उसको
इश्क़ हो गया ....
शहर भर में उसे कोई
ठीक ठीक पहचान तो नहीं पाया
लेकिन मौका-ए-वारदात पर मुस्कुराती
गोल गोल आंखों वाली
एक चश्मदीद मोहतर्मा
उसका नाम 'निखिल' बताती हैं...

Wednesday, March 19, 2008

अल्हड़ छोरी (हक़ीकत)

ऐंवैइ कोई ख्वाब़ पकड़कर
अगली पगली फ़िरती है
इश .. अपनी चंट मंडली संग
वो कितना हल्ला करती है !!
मेरी हर इक बात पकड़कर
इतना झगड़ा करती है
इश.. उंगली मेरी काट दांत से
दुष्ट चबाया करती है ..
ना जाने किसकी है नेमत
जो इतनी प्यारी दिखती है
क्या सूरज ..क्या बेनूर चन्द्रमा
सबसे बेहतर फ़बती है ...

मेरी सर्द हथेली वो
आंखों से चूमा करती है
क्या होश संभालूं जान तलक
जब मुझको घूरा करती है
वो सपनों की हरछठ माई
अब मेरे संग टहलती है
किस फ़ुरसत की वो हरकत है
धरती की है या जन्नत है
ना जाने कितनी पाक़ परी
जो इन्नी सोंणी लगती है
क्या सोनजुही क्या अली कली
उन सबसे बेहतर खिलती है ..

सारी दुनिया की दादी
बस मुझसे ही शर्माती है
इश..चिढ़ जाए फ़िर देखो तो
घंटों मिन्नत करवाती है
वो सबको तो घूरेगी पर ना
मुझसे नज़र मिलाती है
बस दाएं बाएं देखेगी
गठरी जैसी गुंथ जाती है
ना जाने कितनी अल्हड़ है
फ़िर भी इतना घबराती है
क्या छुई मुई क्या प्रथम पुष्प
सबसे ज्यादा शरमाती है .

जो अम्मा से सब कुछ कह दे
बस मेरी बात छिपाती है
बोला ना जाए झूठ मगर
फ़िर भी तो बात बनाती है
हर ज़र्रे तक उसको चाहूं
कितनी कस्में रखवाती है
वो अब भी छोटे दिए चार
अपने मंदिर धरवाती है
ना जाने कितनों की 'मिन्नत'
मेरी 'मन्नत' बन जाती है
क्या हसरत और क्या दुआ पाक़
किस्मत से ही मिल जाती है .

वो कविता की 'अल्हड़ छोरी' ...
जब अनायास मिल जाती है ...
तो सांसे क्या और धड़कन क्या
सब मेरे संग बह जाती हैं
अब कहां 'निखिल' क्या 'शब्द' मियां
सब ज़ुर्रत सी हो जाती हैं
ना तलब रही ना तड़प शेष
क्या सराबोर कर जाती है
तू कौन कबीले की ठगनी
अंगनी मंगनी कर जाती है
ना नगर बचें , ना कबर बचें
क्या झाड़ फ़ूंक कर जाती है .

Thursday, March 13, 2008

मेरा कुछ सामान ..

आज कुछ सामान लिए बैठा हूं
टटोलता हूं तो
मेरी कैफ़ियत है..
जो हर रात
चांद के कटोरे से चुराकर
इकट्ठा की है .
तेरी छुअन है ...
जिसका ज़ायका
मेरी उंगली के
अखिरी कोने से
अभी तक चिपका है .
तेरी अखिरी टूटी
पलक का काला रेशम है
जिसके धागे से
मैंने एक बावला सा
सपना बांध रखा है .
तेरी एक ताज़ा
खिलखिलाहट भी है
जिसकी खनक से
मेरी अखिरी गज़ल
अभी तक ज़िन्दा है.
तेरे रूठने का
एक मज़ेदार किस्सा भी
और साथ में
मेरे मनाने की
दिलचस्प कश्मकश भी है .
मेरा सबसे कीमती
पहला आंसू है
जो कि तेरे
कांधे से ढुलकने से पहले
बटोरा हुआ है .
एक खन्ज़र है
जिसे तेरी नज़र से
चुपचाप तोड़ा था
उसकी धार का निशान
अभी भी सुर्ख़ और ताज़ा है .
एक नमाज़ की दुआ भी है
जिसके पल्लू से
कबूल होने की अर्ज़ी
सिली हुई है .
कुछ एक फ़ुटकर
हांफ़ते हुए
लंगड़े से कांटे हैं
जो तेरे इन्तज़ार में
आलसी घड़ी से
चिढ़कर उखाड़े थे .
एक पनपता सा प्यार है...
एक तू है ..
और एक मैं भी .
आज कुछ सामान लिए बैठा हूं .
सामान कीमती सा है .

"मैं शब्द हूं"

मैं अपने ही जीवन का पिघला सूरज हूं
जो अपने यश की कीर्ति निगलकर भस्म हो चला
मैं अपने ही उद्गम से भटका निर्झर हूं
जो अपने कद के भय से मिटकर बूंद हो चला
मैं उम्मीदों का सिन्धु डूबता उतराता सा
जो अपने तट की परिधि खोजता लुप्त हो चला
मैं सनेह का प्यासा भिक्षुक , आतुर , पागल
जो अपना भावुक तरल चूसकर ठूंठ हो चला
मैं अपने ही बोझिल फलकों पे इन्द्रधनुष सा
जो अपने रंग की चकाचौन्ध से नूर खो चला
मैं अपनी ही आंखों का आंसू बहा अलग सा
जो अपनी ही नजरों से गिरकर भूल हो चला
मैं अपनी रिसती कलम से छूटा शब्द अनोखा
जो पन्नों में फंसकर जीवन भर कैद हो चला
मैं अपने ही साहस का उड़ता मूर्ख पतन्गा
जो अन्तराग्नि में जलकर पल में छार हो चला

पर कहने को..

वही कातर निगाहें..
वही उन्मुक्त सी बाहें..
वही ताकती राहें..
वही अनसुनी आहें..
वही तुम..
वही मैं ..
वही छटपटाता सा प्यार..
पर कहने को..
एक और नया साल..

शिद्दत

मैं आज भी
कलम जैसा कुछ
उठाता तो हूं
पर अब उसकी हलक में
शब्द नहीं रेंगा करते .
हरेक रात
पलकों के शामियाने
आंखों पर ढांक के
रखता भी हूं
पर कोरी झपकियां भी
ताने कसती हैं
रात संजीदा ही रहे
इसलिए ...
सांसों की आवाज़ें
भी नहीं करता
पर अखिरी बार कब
एक जोड़ी घन्टे सो पाया था...
कुछ ठीक से याद नहीं आता
कविताएं अब भी बनाता हूं
पर छन्दों में ढाल नहीं पाता
हरेक नज़्म तौला करता हूं
कम्ब्ख़्त कुछ हल्की सी लगती है
गोया चिढ़कर ...
गज़लों के कागज़..
फ़ाड़ता, फ़ेंकता रहता हूं .
हर दूसरे लम्हें से
रूठ बैठता हूं
पर तेरी मुस्कुराहटों की खनक
यहां तक आती है...
सबसे मिलता भी हूं
पर सब के सब
तेरी परछाइयों के
नमूने से लगते हैं..
तू कभी कुछ खुल कर
नहीं कहती
पर इश्क़ की "हां"
तेरे होठों पर
अभी तक...
चिपकी सी दिखती है .
शायद अभी कुछ बोल बैठेगी
इसी खुश-फ़हमी
की किश्तों में
सांसे गिरवी रखा करता हूं
तुझ पर कुछ खास हक़
नहीं बनता मेरा
लेकिन तेरे जूड़े पे
कभी कभी
मेरे शब्द गुंथे मिल जाते हैं
कांधे के तिल
महावर की लाली
गालों के भंवर
और आंखों की पलकों पर
मेरी गज़लें
अटकी सी मिला करती हैं...
तू इश्क़ में हां कहने
में वक़्त लेने की
अपनी आदत से परेशां है..
और मैं उस आदत की
शिद्दत से..
तू मेरी गज़लों की
नापाक फ़ितरत से परेशां है
और मैं तेरी बेहद पाक
मासूमियत से...

काश्मीर

कहीं किसी कोने में ,
वैधव्यतुषारव्रिता यथा विधुलेखा
तो कहीं दूब पर
लाल ओस की रेखा
कहीं किसी केसर क्यारी में
बेसुध तान्डव नर्तन
तो कहीं किसी के केशों का
वो नदी तटों पर कर्तन
मानव का दानव बनना
पैशाची रक़्त पिपासा
उन्मादों के पागलपन में
आयत फ़ुंकी धुंआ सा
बुज़ू ख़ूनी शराबों से
दरकती ईदगाहों पर
करोगे क्या बसाकर आशियाने....
कब्रगाहों पर ????

बिना तवज़्ज़ो अर्ज़..

मैं गुमनाम बिसारी पाती
सूखी खूनी मुहर लिये
चार अनसुने शेर छ्पाये
बिना तवज़्ज़ो अर्ज़ किये
मैं स्वाती का पगला चातक
प्यासी अपनी चोंच लिये
कूक कूक पर हूक सजाये
अथक निमन्त्रण साथ लिये
मुझे बनाकर भूला ईश्वर
कुछ अच्छे की आस किये
अपनी गलती पर कुढता वो
प्रथक तूलिका भस्म किये
मैं मेघा का भिक्षुक मरुधर
खड़ा ठूंठ सा बोझ लिये
अपनी जननी की छाती पे
क्यूं कुपुत्र का नाम किये
पारिजात से लदे बाग में
मैं झाड़ी का कुटज बिना जल
सागर के मन्थन मे निकला
शिव को अर्पित तिक्त हलाहल
छाया की चाहत में जब भी
मैं बरगद चढ़ सोया हूं
कलियों के लोभी बसन्त के
स्वागत में गिर रोया हूं
चिकनी माटी मैं आंगन की
संदी पडी थी , जड़ थी
तुम कुम्हार थे,तुमने मुझमें
आक्रिति खूब भरी थी
रंग भरे थे इन्द्रधनुष के
आंवे पर खूब पकाया
चटक हुआ जब गोल परिधि पर
तब था हाट चढ़ाया
मेरी थी वह खूब नियति
मैं जा पहुंचा मधुशाला
ऊपर से नीचे मुझको
हाला से लब भर डाला
घुट घुट मरता था वेदी पर
झटपट मैं तड़पा था
पता नहीं क्यों मुझपे तेरा
क्रोध अथक बरपा था??
शक्तिमान है तू,क्यों ना फ़िर
मुझको ठोकर मारी
फूट गया होता उस छण
पहली मारी किलकारी
हां नर्क मुझे दे तू अपनी
ये स्वर्ग मुझे है भारी
नर्क मेरी है जीत,विधाता
और तेरी है हारी...
हां तेरी है हारी....

.........फ़ुरक़त.......

आ इश्क़ के उत्सव मना लें
ग़र तुझे फ़ुरसत ज़रा हो.
बिन्दु की दूरी मिटा दें
ग़र कहीं फ़ुरक़त ज़रा हो.
चल लिपट लें जब तलक़ की
बदन अपने छिल ना जाये.
होंठ मेरे और तेरे
हर तलब तक सिल ना जायें.
आ नज़र का नूर खों दे
इस कदर घूरें ज़िरह तक.
ह्रिदय चिढ़ कर हांफ़ ले
क्यूं बे वज़ह धड़के सुबह तक.
आ नियाज़ों को तकल्लुफ़ का
तनिक मौका न दें.
ला सितम सादा चखें
यूं व्यर्थ का छौंका न दें.
आ ना.. हस्ती फ़ना कर दे
छोड़ अब ना दे दलीलें.
कत्ल कर के जान ले ले
आज़मा ले ये शक़ीलें.
ज़ुल्फ़ में ऐसा छुपा ले
सांस भी ना हो मयस्सर.
खूब तो अब जी चुका हूं
अब किसे जीना मुकर्रर ??

काफ़िर कबरी

कोमल कपोल
कमनीय केश
करखा काले कजरारे
कातर कन्चुक
कबरी काफ़िर
कर कन्गन
कनक कटारी
कटि की कातिल कामुकता
कानन कर्णफ़ूल किलकारे
किंचित कुंचित केश
कांच की किरचों के
कर्पूर कमल की कान्ति
किशोरी;
काहे कत्ल कमाये??

"तुम और मैं"

तुम आकर्षण का केन्द्र बिन्दु
मैं दूर परिधि के बाहर
तुम बसन्त पे फ़िद कली
मैं युग से शापित पतझर
तुम चपल चटक चंचल निर्झर
मैं उसका पिसता प्रस्तर
तुम सावन की पगली मेघा
मैं उसका भिक्षुक मरुधर
तुम फ़ागुन की अल्हड़ रंगत
मैं रंग अकेला काला
तुम नयनों की मादक साकी
मैं मय से खाली प्याला
तुम डाली की भोली कोयल
मैं एक अनसुना चातक
तुम भेजी परियों की क्रति
मैं जग में आया नाहक.........

मौत


जीवन के भोले कपाल पे
रूखे सच का ,रक्त सना हस्ताक्षर
निश्चित मौत
मिटती, बनती, पुनः बिगड़ती
हर आशा की कथावस्तु की इतिश्री
अन्तिम मौत
आपाधापी के रेलों
औ पल छिन पल निर्बाध त्वरा
के क्रम पे यम की मुश्टिनाद
ये मौत
महाउदधि की हर तरन्ग
की चट्टानों से टक्कर
यूं कतरा कतरा छलती
औ चुप्पी पे हंसती,
पगली सी मौत
बूढ़ी नानी की थपकी
पर वो पूनम के लम्बे किस्से
और किस्सों के हर पन्ने की ये चिन्दी
बिखरी खोयी सी मौत
लैला मजनू के रब से भी पाक
ज़वां सच्चे इश्कों पे
जगवालों का और भी सच्चा
कड़ा तमाचा
ये तपाक सी मौत
उसी मौत के पन्जों में
इक पिन्जरबद्ध हसीं मैना
फिर भी इठलाता हंसता ;
यूं जीवट का परिचय
बनता सा जीवन
भेजा ही है जिसे गया
इस मृत्यु देश में मौत खोजने
फिर भी अट्टाहस करता
खुल के अपनी नियति पे
अल्हड़ जीवन
खूब पता है राग रहेगा
सदा अनसुना
सदा अनकहा
फिर भी दिल से तान छेड़ता
इरशादों के बिना अर्ज़ ...
ये जीवन

नज़र

कल तलक़ जो नज़र थी ,
वो हो चली है आज नश्तर .
किश्त में छलनी हुए ,
बेआबरू भी मेरे बख़्तर .
आखिरी ज़र्रे तलक़ ,
होते रहे हम आज बन्जर .
हर तलब की हर तड़प को ,
चख गए दो तेरे खन्जर .
टोटके असमर्थ मेरे ,
गज़ब चोखे तेरे मन्तर .
तेरी आंखों के नगर में ,
टंग रहे हैं मेरे पिन्जर .
पलक के हर छोर से मैं
बांधता हूं ज़िरह लगर
घुल चुका हूं इस कदर कि
सांस भी ना हो मयस्सर .

खलिश

जिंदगी मैं पतंग तू इक डोर सी है
मेरे हर परवाज़ के उस छोर सी है
आ ना तगड़ी इस कदर इक ढील दे दे
एक मांझा चूम के फ़ाख्ता हो लूं .....

कैस सा उश्शाक़ मैं तू मंझी लैला
हर छिटकते पत्थरों के खेल सी है
आ ना तगड़ा अखिरी सा वार कर दे
दोज़खों से जन्नतों का नूर हो लूं ....

ज़िन्दगी मैं लहर तू चट्टान पगली
साहिलों के रोज़ जमते दर्प सी है
इक दफ़ा फ़िर आज चकनाचूर कर तो
रोज़ उठने के भरम से दूर हो लूं .....

बन्ज़रों की खलिश मैं तू बूंद उजली
बदलियों के पिघलते से मोम सी है
एक तगड़ी आखिरी बौछार कर तो
ज़र्रे ज़र्रे तक सिमट के भूल हो लूं ....

एक नाकाम शायर का ख़त.....

सुना है कि इश्क़ पर मेरी गज़लें आजकल तमाम सोलह की उमर वाली लड़कियों को गोया पागल बनाये दे रहीं हैं . उनकी गलियों में मेरी कलम किसी मुहलगे उश्शाक़ से कम नहीं है और मेरे मिसरों को उनकी चोटियों के लाल गुलाब, उनकी ही नज़र बचा के घड़ी-घड़ी चूम लिया करते हैं. 

ये भी सुनता हूं कि किसी मोहतर्मा ने कलाई पर हमारा कीमती क़लाम गुदवा रक्खा है और तबसे उन्हें बेवजह ही दोनों पलकों पर कलाई सेंकने की नई आदत सी लग गई है...

लेकिन मेरा हर शेर, हर एक क़लाम, हर दूसरी गज़ल और ये बड़बोली कलम आग में जाने कितनी बार , मेरे ही हांथों, कब के खाक़ कर दिये जाने चाहिए थे.....ताउम्र लिख के भी मैं तुझे केवल इतना नहीं जता पाया, कि मैं कोई शायर नहीं था ... 


सारी दुनिया को इश्क़ का फ़लसफ़ा हर बारीक ज़र्रे तक समझा सका, पर तुझे आज तक नहीं बता पाया कि मेरा हर एक शब्द तुम थीं.... दुनिया जिन गज़लों को दर्द की अद्भुत कल्पना समझ के दाद के ठीकरे फोड़ती रही वो तो दरअसल कोरी सच्चाइयां ही थीं , जो तू मेरा कान पकड़ कर लिखाती रही....

मैं ताउम्र एक नाकाम शायर ही रहा क्योंकि अभी भी तुम मेरे क़लाम को मेरी कलम का कमाल मात्र समझ के अपनी गोल गोल आंखो से मुस्कुरा रही होंगी...और कल कहोगी, "निखिल ...!!! क्या खूब लिखा था....."

एक गांव में ....

एक गांव में ताज़ा बचपन
अमराई पे जुटता था
बौराई चटकी कलियों पे
पागलपन सा लुटता था.
चिकने पीले ढेले लाकर
उनकी हाट जमाता था
पौआ भर गुड़ से भी ज्यादा
उनका मोल लगाता था.
जब नमक लगी रोटी मुट्ठी में
भरकर मजे से खाता था..
तो फसल चाटती हर टिड्डी को
जमकर डांट लगाता था.
अमिया की लंगड़ी गुठली से
सीटी मस्त बजाता था
जब टीले पे बैठा राजा बन
सबपर हुकुम चलाता था.
तो कभी सूर्य तो कभी पवन को
मुर्गा मस्त बनाता था.
कोइ उसके बुढ्ढे चूल्हे में
जब बांसा स्वप्न पकाता था
वो गोबर लिपे चबूतर पे
कोइ ताज़ा स्वांग रचाता था .

एक गांव मे ताज़ा बचपन....

मैं ही तो हूं....

मुठ्ठी भर घुटता अरमान
बुझी हुई राख सा अभिमान
अखिरी खरीदी हुई सांस
तिरसक्रित सी पड़ी आस
मैं ही तो हूं....

दस जोड़ी वर्षों का व्यर्थ
ठुकराई सी गज़लों का अर्थ
दो कौड़ी के हौसलों का दंश
पुराने फ़टे कागज़ का अन्श.
हां ..मैं ही तो हूं.

ज़लील सा करता तेरा वो लतीफ़ा
दाद देते समाज के ठहाकों का वजीफ़ा
हर ज़मात में अखिरी
हर तमाचे में हाज़िरी
मैं ही तो हूं..

एक बेकार सरकारी एहसान
मुर्दा समाज का जलपान
तेरे हर ताने पे मौन
अपने ही प्रतिबिम्ब में कौन
हां... मैं ही तो हूं..

दीपावली

मैं हमेशा से मानता आया था कि दीपावली पूरे हिन्दुस्तान का त्यौहार है लेकिन आज जब गौर किया तो बहुतों के चेहरों पर इस तथ्य को नकारने वाले स्पष्ट हस्ताक्षर गढ़े मिले. फ़िर चाहे वो अस्सी घाट पे बैठे भिखारियों का समूह रहा हो , सिगरा चौराहे पर आज रात भी पान मसाले की लड़ियां बेचती पांच बरस की कातर निगाहें रहीं हों या फ़िर बनारस शहर के सबसे तिरस्क्रित गन्दे नाले के किनारे उससे भी ज्यादा तिरिस्क्रित अवस्था मे पड़े हुए उस शराबी का जीवित अथवा म्रित शरीर ही रहा हो. सबके लिए दीपावली के मायने अलग थे या फ़िर ये भी कह सकते हैं कि नहीं भी थे. इन्हीं सब के बीच सड़क पे कुन्टल भर पटाखों के चिथड़े पड़े हुए थे और उससे भी कहीं अधिक हर एक छण शून्य में लगातार स्वाहा हो रहा थे. भिखारन की आंखों में दीप जलना बाकी था , पांच बरस की मासूम आंखों में हर चवन्नी के साथ थोड़ा बहुत तो जलने भी लगा था पर शराबी शायद जलाना भी नहीं चाहता था क्योंकि उसे कोइ अधिक कारगर नुस्खा मिल चुका था. बहरहाल ....हिन्दुतान दीपावली मना रहा था...क्योंकि दीपावली पूरे हिन्दुस्तान का त्यौहार जो है.....

सोनजुही


अलसाई सी सोनजुही
बौराई सी महुआ की ओस 
चिर पलाश की मादकता
या मुक्त तबस्सुम लाखों कोस

छिपी उनींदी किरण पूस की
सप्तक का झंकृत उद्घोष
शरद रत्रि की नीरवता
या रति की सुन्दरता का कोष

जेठ दुपहरी की बदली
तुम निर्झर की छींटों का तोष
विधि ने हंस कर जो कर दी 
उस एक शरारत भर का दोष 

मेघों से जो रूठ के बरसी
हो ऐसी बरखा का रोष
बाहों में जो टूट के तरसी
भूली बिसरी खोई होश

शबनम.....

शबनमी ओस की एक बूंद
महुआ की पत्ती पर
तन्वंगी और उनींदी
हौले से पकता सूरज
बादल की भट्टी पर
कच्चा चटक करौंदी
बढ़ता पकता चढ़ता सूरज
भभक भभक जलता सूरज
कतरा कतरा जलती शबनम......
सिसक सिसक मरती शबनम.....

कमली

ये तुझे शरारत क्या सूझी
क्यों सुरमा आज नहीं डाला?
मय के सागर की सीमा को
कमली यों किलक मिटा डाला!!
ये अजब ढिठाई मय प्रदेश विच
अग्नि झरत झरानी है
औ जिन्हे फ़ांस के कत्ल किया
वो उसमे जलत जलानी हैं
उड रही कालिमा धूं धूं कर
घनघोर घटा घहरानी है
पल इस बैठक छिन उस करवट
नागिन फ़ुफ़कार डसानी है
जादू में ठगा अवाक मुग्ध
सन्सार तो आज नसानी है
तू अजब जहर मन्तर चोखा
क्या आज गयी बौरानी है?
लिख रहा शब्द सुलझा तुझ पर
बन रही तिलिस्म कहानी है
रति खडी ठगी उर्वशी मूक
सब अपना सिर खुजलानी हैं
हैं खडी सामने दर्पण के
सौ सौ मुख धर बिचकानी हैं

मेरे गांव का वो किसान..

जाने कितना स्वेद रिसा ?
बेमोल बिका , बेमौत मरा !
धरती की छाती से छनकर
पातालों तक व्यर्थ बहा .
निष्ठुर बादल का भी दिल
कतरा भर नही पसीजा करता
चीमड़ चमड़ी दरिया पिघले
पर वो दो आंसू ना रोता!!
दौलत का बेशर्म प्रभंजन
नाड़ी नाड़ी चाट चला
मज्जा सोख गयी खुद हड्डी
अन्तड़ियों ने धैर्य छला.
फिर भी ऊसर बन्जर में वो
बैलों से ज्यादा खपता है
उसके तन का काला कन्चन
सौ सौ सूरज छलता है!
फिर भी नमक लगी रोटी वो
छप्पन भोग सा खाता है
मेरे गांव का वो किसान..
नित भारत-वर्ष बनाता है...
नित भारत-वर्ष बनाता है...

"गोधरा"

रक्त की काषाय
लिप्सा
रुधिर मे अलमस्त
जिह्वा
अधर का
अभिषेक करती
लपलपाकर
गर्दनें गिरती
धड़ों से
छटपटाकर
मयानों की
जन्ग गलकर
छिटक आयी
झट पिघलकर
नोच डाले
नौ बरस के
शुष्क सीने
हवस के आखेट में
बचपने छीने...