Thursday, March 13, 2008

नज़र

कल तलक़ जो नज़र थी ,
वो हो चली है आज नश्तर .
किश्त में छलनी हुए ,
बेआबरू भी मेरे बख़्तर .
आखिरी ज़र्रे तलक़ ,
होते रहे हम आज बन्जर .
हर तलब की हर तड़प को ,
चख गए दो तेरे खन्जर .
टोटके असमर्थ मेरे ,
गज़ब चोखे तेरे मन्तर .
तेरी आंखों के नगर में ,
टंग रहे हैं मेरे पिन्जर .
पलक के हर छोर से मैं
बांधता हूं ज़िरह लगर
घुल चुका हूं इस कदर कि
सांस भी ना हो मयस्सर .

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