Thursday, March 13, 2008

"मैं शब्द हूं"

मैं अपने ही जीवन का पिघला सूरज हूं
जो अपने यश की कीर्ति निगलकर भस्म हो चला
मैं अपने ही उद्गम से भटका निर्झर हूं
जो अपने कद के भय से मिटकर बूंद हो चला
मैं उम्मीदों का सिन्धु डूबता उतराता सा
जो अपने तट की परिधि खोजता लुप्त हो चला
मैं सनेह का प्यासा भिक्षुक , आतुर , पागल
जो अपना भावुक तरल चूसकर ठूंठ हो चला
मैं अपने ही बोझिल फलकों पे इन्द्रधनुष सा
जो अपने रंग की चकाचौन्ध से नूर खो चला
मैं अपनी ही आंखों का आंसू बहा अलग सा
जो अपनी ही नजरों से गिरकर भूल हो चला
मैं अपनी रिसती कलम से छूटा शब्द अनोखा
जो पन्नों में फंसकर जीवन भर कैद हो चला
मैं अपने ही साहस का उड़ता मूर्ख पतन्गा
जो अन्तराग्नि में जलकर पल में छार हो चला

2 comments:

Kavya!! said...

WOW!!! Nothing can come upto this...awesome, marvellous, perfect!!

Ashish said...

Asli keshav toh tum ho yaar!