Thursday, March 13, 2008

शिद्दत

मैं आज भी
कलम जैसा कुछ
उठाता तो हूं
पर अब उसकी हलक में
शब्द नहीं रेंगा करते .
हरेक रात
पलकों के शामियाने
आंखों पर ढांक के
रखता भी हूं
पर कोरी झपकियां भी
ताने कसती हैं
रात संजीदा ही रहे
इसलिए ...
सांसों की आवाज़ें
भी नहीं करता
पर अखिरी बार कब
एक जोड़ी घन्टे सो पाया था...
कुछ ठीक से याद नहीं आता
कविताएं अब भी बनाता हूं
पर छन्दों में ढाल नहीं पाता
हरेक नज़्म तौला करता हूं
कम्ब्ख़्त कुछ हल्की सी लगती है
गोया चिढ़कर ...
गज़लों के कागज़..
फ़ाड़ता, फ़ेंकता रहता हूं .
हर दूसरे लम्हें से
रूठ बैठता हूं
पर तेरी मुस्कुराहटों की खनक
यहां तक आती है...
सबसे मिलता भी हूं
पर सब के सब
तेरी परछाइयों के
नमूने से लगते हैं..
तू कभी कुछ खुल कर
नहीं कहती
पर इश्क़ की "हां"
तेरे होठों पर
अभी तक...
चिपकी सी दिखती है .
शायद अभी कुछ बोल बैठेगी
इसी खुश-फ़हमी
की किश्तों में
सांसे गिरवी रखा करता हूं
तुझ पर कुछ खास हक़
नहीं बनता मेरा
लेकिन तेरे जूड़े पे
कभी कभी
मेरे शब्द गुंथे मिल जाते हैं
कांधे के तिल
महावर की लाली
गालों के भंवर
और आंखों की पलकों पर
मेरी गज़लें
अटकी सी मिला करती हैं...
तू इश्क़ में हां कहने
में वक़्त लेने की
अपनी आदत से परेशां है..
और मैं उस आदत की
शिद्दत से..
तू मेरी गज़लों की
नापाक फ़ितरत से परेशां है
और मैं तेरी बेहद पाक
मासूमियत से...

1 comment:

Priyanka said...

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Keep writing!
:)