कहानी का समय १९७५ का आषाढ़ और स्थान ग्वालियर में एक लेखपाल का दो मंजिला घर और संख्या तकरीबन ढाई भोले भाले जीव. चेखव, उसकी मां और बाउ जी.
"मां आज मेरे लिए क्या बनाने वाली है ?"
"कढ़ी.."
"बढियां ! ..लेकिन देख मां , हमेशा की तरह कम खट्टा नहीं चलेगा मुझे . आज सब चीज चंगी चाहिए मुझे . भात भी बनाना , चौबे जी कहते हैं कि उनकी तंदुरुस्ती का राज कढ़ी और भात है "
और फ़िर चेखव की चिर परिचित खिल खिलाहट , जो कि किसी प्राइमरी पाठशाला में क्लास ख़त्म होने पर बजने वाले घंटे सी प्रतीत होती थी .
"मां ग्वालियर नरेश को आवाज़ लगाना, मैं अभी कमरे में जाकर पाठ याद करने जा रहा हूं.कल यदि पटवर्धन चौबे जी को याद कर के नहीं सुनाया तो कहेंगे-
"मूर्ख चेखव , हांथ आगे तो करो ज़रा. तुम्हारी हंथेलियों और हमारी बेंत की संगत की जाए तो देखो कैसे बिना तबले के कहरवा के बोल निकल आते हैं ! "
पुनः वही हंसी और हंसी का पीछा करते करते पंजों पर भागते हुए चेखव अपने कमरे में चला गया और वहां कुछ काल्पनिक गड्ढों को फ़ांद कर बचते बचाते अपनी खाट पर कूद गया.
एक गहरी सांस ली , आदतन नाखून से तीन बार नाक खुरची और स्कूल बैग से चार पन्ने निकाल कर कुछ लाइनें रटने लगा .
चेखव शीशे के सामने जाता , पेट पर हांथ फिराता , भिखारियों के से चेहरे बनाता और फ़िर शीशे में झांक कर अपनी लाइनें रटने लगता. भूल जाता तो आप ही गाल पर तमाचा और यदि याद रह जाता तो खुद ही पीठ पर शाबाशी की थपकी.
" अरे ओ ग्वालियर नरेश..नीचे आ...खाना लगा दिया है"
"आया मां "
चेखव ने झट से पन्ने अपने झोले मे सुरक्षित रखे और कुछ बड़ बड़ाते हुए नीचे आ गया .
छोटी चटाई पर पालथी मारी, जंघा पर पटवर्धन जी के कहरवा के बोल जैसा त्रिताल का ठोंका बजाया और कढ़ी की कटोरी के ठीक तीन इंच ऊपर अपनी नाक ले जा कर ज़ोर से सांस खींची , मानो आज मुह से नहीं अपितु नाक से खा जाने का इरादा हो .
"मां ...मां ,,मैंने कहा था ना कि कढ़ी खट्टी बनाना और देख भात भी कैसा चीमड़ हो रक्खा है . मैं नहीं खाता. "
"कहां ? देखूं तो...अरे मैंने तो कच्चे आम की फ़ांकें भी डाली थीं और कहता है कि खट्टा नहीं है ! चुप चाप खाता है कि नहीं ..ठहर वहीं ...आती हूं अभी . "
मां के आने से पहले ही चेखव अपने कमरे में जा चुका था .
"कैसा अजीब लड़का है ये . कल दोपहर से अजीब अजीब हरकतें.कभी शीशे के सामने चेहरे बनाता है तो कभी मुआ जंगलियों की तरह पेट पर हांथ फ़िराकर चिल्लाता है ,पेशवा बाजीराव ..."
"खाना लगवाता है और फ़िर बिना कुछ खाए भाग जाता है . कभी छत पर रोटियां मिलती हैं तो कभी खाट के नीचे से "
अगला दिन..पट्वर्धन चौबे जी का क्लास ...
चौबे जी को घेरे में लिए ७वीं कक्षा के छात्र बमुश्किल खड़े थे. बमुश्किल इसलिए क्यूंकि उत्साह के अतिरेक को काबू में रखने के एवज़ में उनके कूल्हे लगातार मटक रहे थे और वो अपने पंजों पर बार बार उछल उछल कर अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे थे .
माज़रा ये था कि चौबे जी 'पेशवा बाजी राव' नामक नाटक के लिए लौंडों के ओडीशन ले रहे थे.
"मैं मलाठा पेतवा बादीलाव छल्तनत का पत्ता पत्ता अपने निगाह में लक्खूंगा औल मेली नाक के नीचे थुलाफ़ांते तलने की तोशिश भी मत तलना"
तोतले बाजी राव की तोतली सिंह गर्जना सुनकर चौबे जी के लिये अपनी हंसी को रोक पाना उतना ही मुश्किल था जितना की दर्जन भर गुझिया खाने के बाद उनके लिए अपनी डकार रोक पाना होता फ़िर भी तम्बाकू रंगे अधरों के कोने से हंसी का मंद मंद तार सप्तक रिलीज कर के बोले..
"अगला छात्र..."
लड़कों का उत्साह देखते ही बनता था . सब अपने अपने मन का पात्र चुन कर उसकी हू-ब-हू नकल करने की कोशिश कर रहे थे .
अपने बारी आने पर चेखव भी आगे बढा़...आदतन गहरी सांस ..तीन बार नाक खुजाना और फ़िर..
"पेशवा बाजी राव साहब आपका काम सिरफ़ सल्तनत में गुनाह रोकना नहीं है. तीन दिनों से जिन हलक़ के रास्ते अन्न का एक निवाला भी नहीं गया उनकी सुध आपको आएगी भी या नहीं ?आप क्या जानें कि जब हांथ और होंठ के बीच से निवाला छीन लिया जाता है तो क्या बीतती है "
"अरे तेज बोलो मूर्ख . आडिटोरियम में तुम्हारी आवाज़ जब पहली पंक्ति तक भी ना पहुंचेगी तो फ़िर बेज्जती तो होगी पटवर्धन चौबे जी की..वो भी भरे सभागार में "
"पर गुरु जी वो बात ये है कि ..."
"मैंने तीन दिन से कुछ खाया ही नहीं ..ताकि ..."
"गणित कम समझाओ गौरैया ...खाना तुम्हें भरपेट मिला है. नहीं मिला है तो उस देहाती को. समझे..."
"मैंने सचमुच खाना नहीं खाया गुरूजी ...जिससे की मैं ...."
"अरे चलो भी जी...अगला "
चेखव को बहोत गुस्सा आया. जी किया की उनके स्थूल उदर में सुई चुभो कर हवा छोड़ते गुब्बारे जैसा दुनिया से रुख़सत करा दे लेकिन कुछ कह नहीं पाया.ड्रामे के सभी पात्र चुन लिए गए .
चेखव घंटों सड़क पर टहलता रहा . क्रोध , उपेक्षा , कुंठा और दु:ख का सम्मिश्रित भाव चेहरे पर लिए कभी ईंट के टुकडों के लात से मारता तो कभी हांथ से उठा कर खंभों पर मारता.
फ़िर थक कर किनारे बैठ गया . अचानक उसकी नज़र एक भिखारन पर अटक गई जो आधी रोटी लिए टूंग रही थी.
लड़के के दिमाग में पता नहीं क्या आया ...पागल पन था अथवा ख़ुमार..या फ़िर कुंठा..
ठीक ठीक पता नहीं...
चेखव उठा और बुश्कर्ट की बटनें खोल कर उसे झोले में डाला ...बाल बिखेरे..चेहर पर मुट्ठी भर धूल लपेटी ...और अगले ही क्षण उस बुढ़िया के पास जा पहुंचा ...
बोला..."पेशवा बाजी राव साहब आपका काम सिरफ़ सल्तनत में गुनाह रोकना नहीं है. तीन दिनों से जिन हलक़ के रास्ते अन्न का एक निवाला भी नहीं गया उनकी सुध आपको आएगी भी या नहीं ?आप क्या जानें कि जब हांथ और होंठ के बीच से निवाला छीन लिया जाता है तो क्या बीतती है "
बुढ़िया उसे एक टक घूरती रही...निरुत्तर ...
चेखव पुनः बोला..."पेशवा बाजी राव साहब आपका काम सिरफ़ सल्तनत में गुनाह रोकना नहीं है. तीन दिनों से जिन हलक़ के रास्ते अन्न का एक निवाला भी नहीं गया उनकी सुध आपको आएगी भी या नहीं ?आप क्या जानें कि जब हांथ और होंठ के बीच से निवाला छीन लिया जाता है तो क्या बीतती है "
"अरे ओ पेशवा बाजीराव..."
बुढिया को कुछ समझ में तो नहीं आया लेकिन ममता के वशीभूत उसने अपनी आधी रोटी चेखव को थमा दी.चेखव मुस्कुराया ...उसी चिर परिचित अन्दाज में ...वैसी ही पाठशाला के घंटे की आवाज़...लेकिन इस बार कक्षा ख़तम होने की नहीं अपितु मध्यांतर अथवा छुट्टी की लंबी घंटी..."
उसे लगा कि नाटक में रोल के लिए उसे चुना जा चुका था....
Tuesday, September 9, 2008
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