Thursday, October 23, 2008

" सैंतालिस "

मैं जिस जगह की बात कर रहा हूं वो लाहौर का सबसे जीवंत घर है . जीवंत इस मायने में कि जीवन यहां अपने सम्पूर्ण शबाब पर तकरीबन २५० वर्ग फ़ीट को अस्तित्व देने के अपने धंधे में बाकायदा सफ़ल हो पाया था.इस घर की दीवारों पर तस्वीरें नहीं हैं क्योंकि चेहरों पर तमाम तस्वीरें इतनी आशनाई से हर घड़ी खुशनुमा होती रहती हैं कि उन्हें दीवारों पर टांगने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. छतों पर फ़ानूस नहीं लटकते , कण्डीलें नहीं टंगी हैं क्योंकि यहां उनकी खनक की कमी मुस्कुराहटों से पूरी कर दी जाती है . रईसियत के असबाब भी कमती ही नुमाया हैं क्योंकि यहां उन्हें जुटाने की न तो फ़ुरसत ही है किसी को और ना ही तकल्लुफ़ तनिक सा .
आंगन में नौ वर्ष की एक लड़की बैठी हुई है जो अपनी हंथेलियां एकान्तर क्रम में अलट पलट कर उन पर कभी पत्थर के गोल टुकड़े उछालती संभालती रहती है तो कभी फ़र्श पर एक मंझी हुई न्रित्यांगना की लचक और हनक के साथ चौकोर खानों के बीच लंगड़ी टांग खेल्ने लगती है . कुछ को ये किसी गौरैया का फ़ुदकना लग सकता है और बाकियों को कुछ भी नहीं क्योंकि उनके लिए मासूमियत के चोखे मोहपाश से बाहर निकलकर कुछ भी सोच पाने के स्थिति में खुद को ला पाना बेहद मुश्किल होता .
"बेबे हम कहां जा रहे हैं ? "
"पंजाब !! कितना मज़ा आएगा ना , मैंने ना वहां भी सारा दिन गोटियां ही खेलनी हैं और जब थक जाऊंगी ना तो खेलूंगी लंगड़ी टांग ....और फ़िर भी थक गई ना तो ....तो टांग बदल कर खेलूंगी लंगड़ी टांग ."
"एक दो तीन चार पांच ....पांचवां खाना ....
पांच चार तीन दो एक....घर - धप "
फ़िर लड़की कुछ गहरी सोच में कान पर हिफ़ाज़त से अटकी एक घुंघराली लट निकालकर उस पर उंगली से छल्ले बनाने लगी और अगले ही क्षण सारे छल्लों के एक लाइन में खींचकर होंठ पर मूंछ जैसी लगाकर खुद से बोली , "लेकिन दोनों टांगे थक गईं तब...तब तू क्या करेगी मंजीते?"
"मां ...क्या करूंगी मैं तब ? "
"तब मैं तेरे साथ खेलूंगी ...तू खेलेगी ना मेरे साथ बेबे....मेरी अच्छी बेबे..."
"हां मेरी चिड़ी ,खेलूंगी तेरे साथ. अच्छा ये ले , इसे चुन्नी के छोर से बांध ले अपनी "
"क्या है इस पुड़िया में बेबे ? "
"जादूगरनी की पुड़िया है मंजीते , जादूगरनी ने कहा था कि जब भी कलेजा घबराए तो एक सांस में फ़ांक लेना पूरी और चुटकी में सब चंगा "
"सब चंगा..!! जादूगरनी बेबे का चूरन "
लड़की हंसी और अगले ही पल आंख नचाती हुई बोली ....
"लेकिन मां ये छुरी क्यों बांधनी है कुर्ती से ? मैंने क्या कोई सब्जियां छीलनी हैं अम्रितसर जाकर . मैंने नी करना कोई काम वाम वहां ...बताए देती हूं बेबे "
"हां रे मेरी गुड़िया . बस ऐनू बांध ले तू . सिखणियां बांधती हैं ना इसे और तू है ना लाहौर की शेरनी "
लड़की सगर्व मुस्कुराती है ..."लाहौर की शेरनी....मंजीत कौर"
बताना मुश्किल होता है कि ऐसे में स्त्री-सुलभ गर्व अधिक खूबसूरत दिखता है या फ़िर मुस्कुराहट . लड़की फ़िर से खेलने में मशगूल हो गई .
"एक दो तीन चार पांच ....पांचवां खाना ....
पांच चार तीन दो एक....घर - धप "
"अरे कौन है दरवाज़े पर ? ...अरे भई इतनी ज़ोर से मत पीटो कुंडी किवाड़ ही टूट जाए....आ रही हूं ना "
"अरे कहा ना मत पीटो "
बेबे ने मंजी की बांह पकड़ कर उसे झटके से पीछे खींच लिया .
"नहीं खोलना दरवाज़ा , अंदर चल चुपचाप "
"नहीं खोलूं दरवाज़ा ? अरे देखने दे ना कौन है "
क्या...! अरे देखने दे ना "
बेबे उसे खींचकर घर के सबसे भीतर वाले कमरे में ले गई और किवाड़ सांकल से सटा दिए . धीरे धीरे शोर बढ़ने लगा , जैसे किसी हुज़ूम की आवाजें एक दूसरे के कंधे पर चढ़कर बहुत ऊंची चढ़ती जा रही हों .
"बेबे क्या हो रहा है बाहर ..ये लोग दरवाज़ा क्यों पीट रहे हैं ...
मां तू इतना कांप क्यों रही है ?
अरे कोई नहीं है मां , शायद दारजी होंगे दरवाज़े पर , मैं देख कर आती हूं अभी ..."
लड़की उठती कि उससे पहले भीड़ ने खिड़कियों से मशालें और पत्थर फ़ेंकना शुरू कर दिया था . दरवाज़े पर लट्ठों से लगातर ठोकरें मारी जा रही थीं .
अब तक मंजीत को भी समझ आना शुरू हो गया था कि मामला क्या है .
फ़िर भी लड़की मुस्कुराई ...लेकिन थोड़ा मुश्किल से .
"अरे मां तू डर मत ना और अपने पास वो पुड़िया भी है ना ..."
उसकी आंखों में चमक सी आई . मानों कोई तरीका मिल गया हो उनसे निबटने का .
मां ने भी ज़बरदस्ती मुस्कुराने की कोशिश की और मुस्कुराने में सफ़ल भी हुई . मंजीत को मानो थोड़ा सा आश्वासन सा मिला कि हां वाकई पुड़िया में कुछ तो मंतर है जो उनका डर चुटकी में खतम कर देगा . दोनों ने चुन्नी के छोर से चूरन निकाला और एक झटके में हलक के नीचे धकेल दिया . पुड़िया में सचमुच मंतर था .
असर भी दिखा , दोनों का शरीर धीरे धीरे अकड़ना शुरू हो गया , गठरियां सी गुंथने लगीं . अंतणियां शायद चूरन हज़म नहीं करना चाहती थीं इसलिए सफ़ेद झाग के रूप में उसे मुंह के बाहर पम्प करने लगीं .
लेकिन एक बात तो तय थी कि उसमें मंतर था और डर सचमुच कम हो रहा था . वजह ये थी कि दिमाग के नसें इतनी शिथिल पड़ चुकी थीं कि उन्होंने 'डर' लव्ज़ का आगा पीछा सोचने में असमर्थता जता दी थी. हुज़ूम पागल हो रहा था .अब यहां पर एक दौड़ सी शुरू हो गई थी . दौड़ में हिस्सा लेने वाले तीन थे . छूटती हिम्मत , उखड़ती सांसें और टूटते दरवाज़े . दुर्भाग्य से दौड़ में सबसे आगे थे टूटते दरवाज़े और सबसे पीछे रह गई थी छूटती हुई हिम्मत . इतना भी तय था कि घर का अखिरी दरवाज़ा आखिरी सांस उखड़ने के पहले ही टूट जाता ... या शायद और भी बहुत पहले .
ज़बान से से कानों तक शब्द फ़ेंकने के लिए बहुत हिमम्त और मेहनत की ज़रूरत थी फ़िर भी मंजीत ने दोनों ज़रूरी चीज़ें बटोर कर कहा , " अभी भी डर लग रहा है...तेरी पुड़िया से कुछ नहीं होता "
कम्बख़्त ज़हर भी चोखा नहीं था . सिखणी ने कातर निगाहों से बच्ची को ऐसे देखा मानों उसका झूठ पकड़ा गया हो . शरीर में बची खुची सारी हिमम्त जुटाकर टीन का डिब्बा उठाया , तीन चौथाई मंजीत पर और एक चौथाई खुद पर उड़ेला . मंजीत पर थोड़ा ज्यादा , ताकि वो आसानी से जल सके और खुद पर कमती इसलिए ताकि वह भी जल सके , सुकून से ना सही ...थोड़ी मुश्किल से ही सही ...मगर जल सके . तीली दी गई...दोनों भम्म से जलने लगीं और अगले ही क्षण हुज़ूम ने आखिरी दरवाज़ा भी तोड़ दिया .
हुज़ूम हैरान था , सब के सब सन्न ...कोई हरकत नहीं . फटी आंखों में आग की लपटें आसानी से दिखाई पड़ रही थीं .
" अरे क्या सांप सूंघ गया है हरामियों ?
सोचते क्या हो ?
कुछ सांसे बाकी रह गई हैं सिखणियों में ...
देखते नहीं , अभी भी हरकतें हो रही हैं "
ललकार ने असर दिखाया , हुज़ूम का मौन टूटा .
मयानों से कुछ तलवारें निकाली गईं . दो जलते शरीर संख्या में चार कर दिए गए .
दो जनाने शरीर ....
सौभाग्य से छटपटाने में असमर्थ .
दो जनाने धड़ ....
दुर्भाग्य से छटपटाने में समर्थ .
और बीच में खून की फूटती लाल धार लेकिन इतनी पर्याप्त नहीं कि आग को बुझा सके .
लपट चिढ़ती जरूर थी लेकिन एक छौंक के साथ फ़िर से जलने लगती थी .
लाहौर का सबसे जीवंत घर सैंतालिस की भेंट चढ़ चुका था
और बाकी तमाम चढ़ने की तैयारी में थे.

2 comments:

Praharsh Sharma said...

आपके कहानी सैन्तलीस का सफ़ल चित्रण करने मे सक्शम मालूम हुई. कहानी के पर्वान चढ्ने तक दिमाग से शीर्षक निकल गया था लेकिन "गदर" आखो को साफ़ दिखायी दे रही थी. कहानी मन्ज़िल तक पहुन्ची तो विश्वास हो गया कि वकायी बात वही थी. मन्ज़िल आते ही शीर्षक पुनः दिखायी पडा. "लाहॊर का एक और परिवर सैन्तलीस की भैन्ट चड चुका था".

An interesting and awesome literary read. The words very beautifully succeed in bringing the appropriate visualisation on. Great! :)

Unknown said...

i was touched yaar... a gr8 peace of work... really great... the dialogues in punjabi looked so natural, expression of characters everything...!!!
you hav to go places... keep it up!!!