ये कहानी 'एक्ज़िस्टेन्शियलिज़्म' के शौकीनों के लिए नहीं हैं . इसके हर एक शब्द से अस्तित्व-वाद का विवाद , मैंने छिछोरे ह्यूमर की सीरिंज से चूसकर वैसे ही फ़ेंक दिया है जैसे पुरानी नाग नागिन की मूवीज़ में सांप के काटने से बेहोश हुई हीरोइन की गोरी जांघ से ,इच्छाधारी नाग , यानी कि हमारा छिछोरा हीरो , अपने नापाक होंठों से सारा ज़हर चूसकर थूंक देता है और फ़िर शुरू होता है उनके प्रेम का अज़ीम शाहकार ...दो बदन एक हो जाते हैं , रफ़ी साहब की कशिश भरी आवाज़ एक तगड़ा रोमैंटिक आलाप लेती है और टी.वी. स्क्रीन पर सेन्सर की पाबंदियों की वजह से सिरफ़ दो भंवरों का चुम्बन या फ़िर सरसों की कलियों का गुंथना ही दिखाया जाता है . ख़ैर समझदार जनता अपनी समझ से तनिक अधिक ही समझ जाती है क्योंकि 'सेक्स' आदमी की बेसिक इन्स्टिन्क्ट जो है .
पर बांके और उनकी बेहद ख़ूबसूरत बेग़म गिलौरी की बेसिक इन्स्टिन्क्ट उनकी बेशकीमती शरम में दब कर दम तोड़ चुकी थी . कम्बख़त उनकी भी सुहागरात वैसे ही नाटकीय अन्दाज़ में देवरानियों और जेठानियों के हाई पिच्ड 'ही-ही-ही-ही' प्रलाप के साथ ही शुरू कराई गई थी . लेकिन इब्तदा बेहतरीन हो इसका अर्थ यह तो नहीं की अंत भी सुखद ही होगा . इन दोनों के लिए प्रेम प्रदर्शन का अर्थ वही सरसों के पुष्प और भंवरों का अवगुंठन ही था . नेपथ्य में (झाड़ी के पीछे) क्या होता है वो उन्हें कभी समझाया ही नहीं गया . अरे समझाया तो तब जाता जब ये सब समझाए जाने की बात हो .ये हिंदुस्तान है जहां आदमी का नैचुरल टैलेंट भी कोई चीज़ होती है , यहां नान-वेजीटेरियन जोक सुन सुन कर बित्ते भर के लौंडे उमर से पहले ही बड़े हो जाते हैं . और अब तो सरकार भी परिवार नियोजन और 'गोली के हमजोली' के विग्यापनों के माध्यम से काफ़ी कुछ समझा देती है . अब वो जमाना नहीं रहा कि लौंडे ऐसे नाज़ुक मौके पर चैनल चेंज कर दें , अब वो ज़माना है कि समझदार अम्मियां पानी लाने के बहाने चल देती हैं और अब्बू लोग अख़बार पढ़ने में मशग़ूल हो जाते हैं . और कई बार इसी सब से उन्हें याद आता है कि आज मुन्ने को जल्दी सुलाकर मूड बना लेने में कोई हर्ज़ नहीं है .
चलिए आपको बिला रोक टोक बांके और गिलौरी के कमरे के अंदर लिए चलता हूं . रेडियो आन है फ़िलहाल उस पर जगजीत की गज़ल तैर रही है ,
'तेरे बारे में जब सोचा नहीं था ..
मैं तन्हा था मगर इतना नहीं था ...'
अब इस बखत क्यों बज रही है , ये मुझसे मत पूछिए क्योंकि ऐसे मामलों में इन्ट्रेस्ट सही जगह पर ही होना चाहिए , इधर उधर बेकार की बातों में झोल खोजकर माहौल की रूमानियत से छेड़ छाड़ नहीं करना चाहिए आख़िर रोमांसक टीम-टाम बिठाने में लेखक को कितनी मनोहर कहानियों का ध्यान लगाना पड़ता है इसकी भी तो कद्र हो . सफ़ेद सी चादर पर गुलाब की एक किलो-दो पाव पंखुड़ियों के साथ साथ बांके भी अपने कलेजे सहित बिछे हुए थे . दिल गजब धड़कता था , तमाम बार सन्देह होता था कि आवाज़ दिल के धड़कने की नहीं है ...डकार की है या फ़िर कोई और ही नाद है . बांके सहम से जाते थे और आसपास रखी चीज़ों को करीने से सजाने लगते थे. अब तक कितनी ही बार तमाम नायिकाओं की कल्पना कर चुके थे कि कैसे उनके रूप में गिलौरी दूध का गिलास लेकर हिरनी की चाल से बंकिम नयनों से कमरे में प्रवेश कर रही है . उन्होंने बिस्तर पर केसर और गुलाब को वापस तरीके से सजा दिया , एक एक सलवट ठीक की ताकि ये ना लगे कि वो बड़ी अधीरता से बिस्तर में इधर उधर लोट रहे थे . उन्होंने सुन रखा था कि 'फ़र्स्ट इम्प्रेशन इज़ दि लास्ट इम्प्रेशन'. मौका समझकर रेडियो का वोल्यूम ज़रा सा चढ़ाया और गज़ल की गम्भीरता अपने चेहरे पर लेप कर पीठ सीधी कर के तन कर बैठ गए . उनकी समझ से यही उचित था लेकिन मेरी समझ से वो बाबा रामदेव के वालंटियर नज़र आ रहे थे . पैर की उंगलियां कसमसा रही थीं .उत्सुकता और अधीरता में अंगूठा बगल वाली उंगली की रीढ़ तोड़े दे रहा था . अचानक से गिलौरी ने कमरे में प्रवेश किया , बांके ऐसा चौंके जैसे नुक्कड़ पर बीड़ी पीते हुए पहली बार पकड़े जाने पर वालिद जी के सामने चौंके थे . फ़िर भी उन्होंने मामला सम्भालने की कोशिश की , रेडियो का कान उमेठकर चैनल बदला तो दूसरा गाना बज उठा , फ़िल्म तो सिचुएशनल थी , 'दुल्हन हम ले जाएंगे' पर गाना कहीं से भी सिचुएशनल नहीं था-
'तेरा पल्लू सरका जाए रे , बस तो फ़िर हो जाए..ई हा फ़चक...ओ हा फ़चक..'
बेचारे ऐसा शर्माए कि रेडियो बंद करने का तरीका ही भूल बठे. अनाड़ियों की तरीके उसे हथेली से थपकाने लगे जैसे आजकल रेडिओ आफ़ करने का तरीका यही हो . कहते हैं मुस्कुरा कर सब लीपा पोती बराबर की जा सकती है , सारी शक्ति लगाकर मासूमों की तरह मुस्कुराए लेकिन सामने बुत बनी गिलौरी को देख कर हंसी फ़ाख्ता हो गई . लाल साड़ी , गहने जेवर और उस सबके ऊपर हांथ में दूध का गिलास . लग रहा था कि फ़ालिज़ मार गया हो बेचारी को ,एक कदम भी नहीं चल सकती थी , वो तो भला हो देवरानी और जेठानी का , वो बिना पूछे कमरें में दाखिल हुईं और अपना कर्तव्य पालन करके मुस्कुराती हुई चली गईं और साथ में हिदायत दे गईं , 'कुंडी लगा लेना ' . बांके कोशिश करके दुबारा मुस्कुराए , कुंडी बंद की , बिस्तर पर बैठे और बुदबुदाए , 'बदमाश कहीं की , सब की सब चंट हैं '
जवाब में गिलौरी भी मुस्कुराई और लो जी , बात करने का टापिक भी मिल गया ...
'हां दोनों बड़ी ही प्यारी हैं , दिल की बड़ी नेक लगती हैं '...वगैरह वगैरह ....
बात चल निकली...
बांके की उंगली बिस्तर पर छोटे छोटे कदम चल कर , सरकते सरकते गिलौरी की तरफ़ बढ़ी कि अचानक लगा कि ऐसा करना अधीरता का सूचक होगा और ये दिखाएगा कि वो कैरेक्टर वाले नहीं हैं ('फ़र्स्ट इम्प्रेशन इज़ दि लास्ट इम्प्रेशन').फ़ौरन उंगली वापस . धत तेरे की ...
बोले अच्छा होगा हम दोनों आज की रात एक दूसरे को भली तरह जान लें . लाल घूंघट के भीतर से कमजोर सी आवाज़ आई...'जी , जैसा आप ठीक समझें '
लीजिए , जान पहचान भी शुरू हो गई . बीच बीच में जब बांके को लगता कि ठीक ठाक जान पहचान हो गई है तो फ़िर से उनकी उंगली गिलौरी की तरफ़ बढ़ती लेकिन समर्थन नहीं मिला.उन्हें लगा कि उनसे ज़रूर कोई ग़लती या ज़ल्दबाजी हो गई है लेकिन बेवकूफ़ को ये नहीं समझ आया था कि लड़कियों की शरम हया भी तो कोई चीज़ होती है . बात कुछ जमी नहीं .
बोले, 'आप भी अपने बारे में कुछ बताइए ना , इतनी देर से मैं ही बक बक किए जा रहा हूं , देखिए मेरा मानना है कि पति-पत्नि एक ही गाड़ी के दो पहिए होते हैं....' ( बोले तो इतने ही अधिकार से थे कि कोई इनोवेटिव आइडिया हो और खाली उन्हें ही पता हो )
लाल घूंघट से आवाज़ आई , 'जी मैं क्या कहूं '
'अरे..इसी तरह , कुछ भी अपने बारे में '
'जी इसी तरह ...माने कि ..जैसे हमारा नाम गिलौरी है..'
कुछ देर की चुप्पी ...
'हां जी वो तो हमने शादी के कार्ड में पढ़ लिया था ...बांके परिणय गिलौरी '
उन्हें लगा था कि बेहतरीन जोक मारकर माहौल हल्का हो जाएगा लेकिन बेचारी सकपकाकर और भी गठरी जैसे गुंथ गई . उन्होंने सोचा नहीं था कि इतनी बड़ी गड़बड़ हो गई है या शायद नहीं भी हुई थी परंतु उसके बाद उनकी हिम्मत नहीं हुई कि समर्थन मांगा जाए या फ़िर बात बढ़ाई जाए .दोनों प्राणी कुछ एक फ़ुट की दूरी पर लेटे हुए नींद में होने का उपक्रम कर रहे थे लेकिन सर्दी की रात में करवट लेने पर खटिया की आवाज़ भी चीत्कार जैसी सुनाई देती थी तो बेचारे प्राणी और भी शर्मिंदा हो जाते थे . दोनों उसी तरह बेसुध पड़े थे , लेकिन कोई भी नहीं उठा . काश दोनों में से बांके ने वो नाग नागिन की फ़िल्म देखी होती तो इतना बवाल ही नहीं होता .
अगली सुबह देवरानी गिलौरी के पास से निकली तो उसने चुटकी लेते हुए एक गीत गुनगुनाना शुरू कर दिया . गीत के बोल थे , 'मोहे आई ना जग से लाज , पिया ने ऐसा पकड़ा हांथ ...कि कंगन टूट गए ...' अब गिलौरी को गुस्सा आ रहा था . एक तो इस बात पर कि कलमुही सुबह से ये गाना गुनगुनाए जा रही है और दूसरा इस बात पर कि कैसे अनाड़ी सैंया मिले हैं . वो जरूर प्राइमरी से ऊपर नहीं गई पर ये तो मैट्रिक पास हैं . जवाब में उसे मुस्कुराना ही पड़ा , बेचारी धत कहकर किचन में चली गई . देवरानी दोबारा किचन में आई ...
'कुछ मुझ में थोड़ा जोबन भी था ..
कुछ प्यार का पागलपन भी था ..
मैं बन के गई थी चोर ..
कि मेरी पायल थी कमजोर...
कि घुंघरू टूट गए..'
अबकी तो बगल में बांके भी खड़े थे . करते क्या , मुस्कुरा दिए लेकिन कसम से ये हंसी ऐसी थी जैसे होंठ का निचला वाला आधा हिस्सा ऊपर वाले हिस्से से कर्ज़ा खाए बैठा हो और वही उतारने के लिए ज़रा सा थिरका हो . जी हुज़ूरी करी हो . चुटकी लेने पर अगर सामने वाला शर्मिंदा हो कर लाल हो जाए तो इससे बड़ा इनाम और कुछ नहीं होता . कम्बखत को बढ़ावा मिल गया और मौके बे-मौके चुटकी लेने से बाज नहीं आती थी और गिलौरी की जान खाए रहती थी.महीने भर दिन ठिठोली में बीत जाता और रातें 'जान-पहचान' में ...
बांके अजीब से जतन करते थे . मसलन कभी कभी ग्रहशोभा लाकर उसके वो पन्ने खोलकर गिलौरी के आसपास चुपके से रख जाते जिसमें महिलाओं की अजीब अजीब सी स्वास्थ्य समस्याएं छपी होती थीं या फ़िर कोई सेक्स सम्बन्धी उलझन . फ़िर बाद में उन्हें लगता था कि उनसे कोई बड़ा भारी पाप हो गया है तो उन्होंने वो करना भी छोड़ दिया जबकि गिलौरी तो तमाम बार घर वालों से छुपाकर मनोहर कहानियां पढ़ चुकी थी . बेचारे बांके कभी कभी गुलाब लेकर आ जाते थे लेकिन ज्वाइंट फ़ैमिली में गुलाब अपने गंतव्य तक पहुंच जाता इसके लिए प्राएवेट लम्हें अब नसीब भी नहीं हो पाते थे . चुटकियां लेना अभी तक जारी था लेकिन तमाम बार तो हद ही हो जाती थी . मसलन एक बार तबियत खराब होने की वजह से गिलौरे को उबकाई आने लगी तो चलती फ़िरती चित्रहार यानी उनकी देवरानी ने गीत गा दिया , 'मेरे घर आई एक नन्हीं कली '
उस दिन तो गिलौरी के गुस्से का कोई ठिकाना ही नहीं था लेकिन कोशिश करके बड़ी ही शालीनता से उसने उसे समझाया कि ये सब उसकी तबियत खराब होने की वज़ह से है वरना चंट कहीं की सारे घर में गा आती...'मेरे घर आई एक नन्हीं कली ' .
....गिलौरी की सहेली कम्मो उससे मिलने आई तो उसने ना चाहते हुए भी सारा रोना रो डाला उसके सामने. बचपन की प्रगाढ़ता थी , बेचारी का दिल पसीज गया .लेकिन पता नहीं क्या बात हुई थी दोनों के बीच कि गिलौरी आज गज़ब चहक रही था ....
उस रात बांके जब कमरे में दाखिल हुए तो उन्हें मानों सांप सूंघ गया ...फ़्रेन्च में कहते हैं ना ...'डेजा -वू ' ...माने कुछ ऐसा देख लेना जो कि लगे कि पहले भी बिल्कुल वैसा ही कुछ देखा था. हां जी बिल्कुल देखा था ...
गिलौरी वैसी ही लाल साड़ी में बिस्तर पर बैठी हुई थी .बिस्तर पर गुलाब और केसर बेतरतीब बिखरे हुए थे . सब चीज़ें करीने से सजी हुई थीं .लेकिन आगे वैसा कुछ नहीं हुआ जैसा आपने सोचना शुरू कर दिया है ...गिलौरी ने बांके को एक ख़त थमा दिया जो उसने अपनी सहेली से बिनती कर के और तमाम कसम देकर लिखवाया था . ख़त कुछ ऐसा था ...
'प्राणनाथ ,
हम पूरी तरह से आपकी हैं . हमारे प्राण और आत्मा तक आपके दुआरे जीवन भर गिरवी रहेंगे और हमारी सांसें उखड़ने के बाद भी आपकी उधारी रहेंगी . हम सुने थे कि एक कली ख़ुद से कितना भी जतन कर ले फूल नहीं हो सकती , क्योंकि ऊ जादू की कला तो भंवरे को ही आती है ना .जितना जानना था जान चुके हो आप .आपको समर्पित होने के इंतजार में ...
आपकी गिलौरी '
आखिरी लाइन शायद थोड़ी ज्यादा हो गई थी , गिलौरी ने सहेली से कहा भी था कि ऐसा ना ही लिखे कि जितना जानना था आप जान चुके पर चूंकि सहेली भी मैट्रिक पास थी इसलिए गिलौरी को उसकी बात माननी पड़ी वरना वो ख़त लिखने से भी इनकार कर देती . सहेली ने तो ये भी कहा था कि ख़त के आख़िर में गिलौरी के आगे ब्रैकेट में गिल्लू लिख दे ....प्यार का नाम ...लेकिन गिलौरी के काफ़ी मनाने पर उसने ऐसा नहीं लिखा .
हां ...अब आपको अपने दिमाग के घोड़े अपनी तरह से दौड़ाने की खुली छूट है ..क्योंकि आगे वो सब कुछ हुआ जो आप सोच रहे हैं और वो भी हुआ जो आप इस बखत सोच भी नहीं पा रहे हैं क्योंकि आप उस मामले में अभी हैं तो आप अनाड़ी और नौ-सिखिए ही ना .
बहरहाल मैं बस इतना ही कहूंगा कि बात जम गई क्योंकि अगले दिन गिलौरी देवरानी के पास से गुज़री तो वो ख़ुद ही गीत गुनगुना रही थी ....
'कुछ मुझ में थोड़ा जोबन भी था ..
कुछ प्यार का पागलपन भी था ..
मैं बन के गई थी चोर ..
कि मेरी पायल थी कमजोर...
कि घुंघरू टूट गए..'
और मज़े की बात ये है कि विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि बांके ने गिलौरी को गिल्लू कह कर बुलाना शुरू कर दिया है . एक ने तो ये भी बताया कि अब तो गिल्लू ने देवरानी का प्रतिवाद करना भी बंद कर दिया है और वो उसकी बात से चिढ़ती भी नहीं है .और एक दिन उसे उबकाई आई तो उसने ख़ुद ही गुनगुनाना शुरू कर दिया था ...
Saturday, February 21, 2009
Sunday, February 15, 2009
" विद्रोह "
मार्क्स का जना समाजवाद नाम का ओरैंग उटांग साम्राज्यवाद के बड़े बड़े चिम्पांजियों को हज़म करता जा रहा था और इतिहास के बीहड़ में धब्बे जैसे दिखते झाड़नुमा ग़ुलाम उपनिवेशों को अपनी मुट्ठी से उखाड़कर मुक्त करा रहा था. भारत समेत समूचे विश्व में समाजवाद-साम्यवाद की जय जयकार थी . बुर्जुआ वर्ग अपनी तशरीफ़ बचाने में मशग़ूल था और शोषित वर्ग तशरीफ़ घिसने में.
यहां गांधी जी ने साधिकार असहयोग आंदोलन को रोक दिया तो कांग्रेस की कोख से जना जा रहा आज़ादी का शिशु बिलबिलाते बिलबिलाते चुप हो गया . मातमपुरसी हुई और शीघ्र ही नया एजेंडा जने जाने के लिए ख़याली संभोग धकमपेल के साथ शुरू हो गया . ख़ैर समाजवाद के ओरैंग उटांग के सामने बाकी सारे एजेंडों के लाल लाल बंदर कंखरी खुजाते ही नज़र आ रहे थे,मौके बे-मौके गुलाटी मार लेते और वापस वहीं के वहीं .
यहां लाहौर में एक अपेक्षाकृत विचार समृद्ध इलाके में माणिक , ग़ालिब और मार्क्स दोनों का मुह ताके जा रहा था . समाजवाद की मोटी मोटी किताबों पर ग़ालिब का छोटा सा शेर भारी पड़ जाता था और एक नया रोमैंटिक तसव्वुर तम्बू तान के बेशर्मियत बुलंद कर देता था .
बड़के भैया बड़ी देर से समाजवाद को नंगा कर के उसकी बेदाग़ियत और पाक-साफ़-गोई से माणिक को परिचित करा रहे थे लेकिन हमेशा की तरह उस पर कोई असर नहीं पड़ रहा था . बड़के भैया को आश्चर्य होता था कि ये ढीठ कैसे इतनी बे-अदबी से मार्क्स की किताबों पर ग़ालिब का शेर मूत कर चला जाता है , लगता है जैसे ज़बान की कड़छी से गज़लों का छौंका लगाने का मंतव्य सिर्फ़ उनका कलेजा जलाना ही हो .
ख़ैर लगन तो लगन थी, इस संग लागे या उस संग . उसकी लग़न एक लड़की से हो गई थी और वो थी भी कम्बख़्त ऐसी . गांधी के सर पर बाल नहीं थे , तो मार्क्स के सर और चेहरे पर ज़रूरत से ज्यादा परन्तु उस लड़की के सर पर जैसे एक एक बाल ख़ुदा ने ख़ुद काढ़ा हो . अपनी उंगलियों से घुमा कर घुंघराले लच्छे बना दिए थे ताकि महक कैद हो जाए उनमें . मार्क्स कुछ कहता तो पूरी की पूरी भीड़ सोचने पर विवश हो जाती लेकिन ये कुछ कहती तो पूरी की पूरी भीड़ सोचना छोड़ देती. गांधी कह देता तो सब के सब तश्तरियां उलट कर भूख हड़ताल पर बैठ जाते लेकिन ये मरजाणी अपने हांथ से परोस देती तो अच्छे अच्छे हड़ताली ख़ुद तशतरियां उलट कर कतार में भिखारी जैसे खड़े हो जाते . भूखी तश्तरियां ख़ुद-ब-ख़ुद अपनी तांबे की आंते तक हज़म कर जातीं .
माणिक बड़के भैया को ऐसी तमाम दलीलें दे सकता था क्योंकि वह जानता था कि भले ही वो क्रांति के महान चढ़ावे में एक चम्मच घी की छौंक भी ना लगा सका लेकिन प्रेम में अपना सब कुछ दांव पर रख चुका था . बड़के भैया ने कितनी ही बार उसे अपने साथ जुलूसों में ले जाना चाहा लेकिन उसका कहना था कि वो कायर था और उसे खून और लाठियों से घिन और डर आता है . आज फ़िर बहुत देर तक माणिक और बड़के भैया की बहस चली लेकिन माणिक को एक बार फ़िर ग़ालिब ज्यादा हसीन मालूम हुए और वो फ़िर एक शेर गुनगुनाते हुए निकल पड़ा -
"मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख के क्या रंग है तेरा मेरे आगे"
बड़के भैया ने अश्फ़ाक़ को याद किया और सरफ़रोशी की तमन्ना उसके मुंह पर दे मारनी चाही लेकिन तब तक जवाबी शेर उनके तमतमाए लाल गालों पर चांटे जैसा चिपकाया जा चुका था-
"इब्तदा-ए-इश्क़ है, रोता है क्या!
आगे आगे देखिए , होता है क्या "
बड़के भैया समझ गए कि जब कानों में इतना खूंट भरा हो तो जब तक तज़ुर्बे की दियासलाई से खूंट ना खोदा जाए ,कोई और बात घुसेगी ही नहीं .
एक दिन वो भी हुआ .माणिक के दोस्त ने उसे शाम को ख़बर दी कि लड़की का ब्याह मार्क्स के दुश्मन एक बुर्जुआ से तय कर दिया गया है और लड़की ने भी हां कर दी है क्योंकि आज के समय में पूंजीवाद को तो नकारा जा सकता है लेकिन पूंजीपति को अनदेखा नहीं किया जा सकता . छटपटाते हुए माणिक कांख में मीर और ग़ालिब को खोंसे उसके घर तक जा पहुंचा . चेहरे पर स्वदेशी जूता भी पड़ा और विलायत का लेदर भी . २३ बरस में पहली बार उसे ऐसा लगा कि उसकी धमनियों में खून जैसा कुछ गुड़-गुड़ कर रहा है और बाहर नहीं आया तो शिराएं दबाव बर्दाश्त नहीं कर पाएंगी और इस बखत नहीं तो अगले बखत देर-सबेर फ़ट पड़ेंगी . उसने इधर उधर रो पीट कर सबसे मदद की गुहार लगाई लेकिन इस पूंजीपति से लड़ने कोई मार्क्स नहीं आया, गांधी तो वैसे भी अहिंसा वादी था तो उससे मदद की आस लगाना बेमानी ही थी . मणिक ने ग़ालिब को याद किया तो पता चला कि वो भी किसी मयख़ाने के चक्कर लगाने में मशग़ूल था क्योंकि वहां उसे उसका नया मिसरा या शेर मिल सकता था और ग़ालिब के एक शेर की कीमत एक आम ज़िन्दगी से कहीं ज्यादा होती है .
इसी बीच ख़बर आई कि भगत सिंह गिरफ़्तार कर लिए गए . बड़के भैया ने माणिक से कोई भी उम्मीद करना ही छोड़ दिया था . वो अपने साथी क्रांति कारियों के साथ जवाबी कार्यवाही में निकल पड़े . लाठियां चलीं , रास्ता रोकने सिर और छातियां आईं . चाकू खरबूजे पर गिरे और कहीं कहीं खरबूजे खुद चाकू पर सगर्व कूद पड़े .
इधर माणिक मियां का हाल चाल लेने साक्षात ग़ालिब झूमते हुए आए . उसकी तरफ़ पान की गिलौरी और थोड़ा सा चूना बढ़ाया . निशाना गलत लग गया , ज़रा सा चूना उसके ज़ख़मों पर गिर गया . माणिक तिलमिलाया , बिलबिलाया लेकिन कुछ कह नहीं सका क्योंकि वो कमज़ोर था और ख़ून के रंग भर से उसे बड़ा डर लगता था .लेकिन उसने देखा कि ग़ालिब के ग़ुलाब और पान के कत्थे का रंग भी वही था . उसके जी में आया कि वो भी कुछ ऐसा कर दिखाए कि साले इश्क़ को गाली देने वाले और उसे कमज़ोर कहने वालों का कलेजा सिकुड़ कर पुड़िया हो जाए .
उधर बड़के भैया एक लाठी का कोप भाजन बन गए और मौके पर ही मार्क्स की गोद में सो गए .माणिक ने देखा कि गांधी ने ख़ुद अपनी सफ़ेद धोंती बेचारे शहीद को उढ़ाई थी . और यहां ग़ालिब सिर्फ़ पान चबाने में मशग़ूल थे . माणिक ने मीर का मुह ताका तो उसने कहा कि उसे पहले मीर के पास आना चाहिए था , तुम साले ग़ालिब के पास क्यों गए-
"रेख़्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो "ग़ालिब"
कहते हैं अगले ज़माने में कोइ मीर भी था "
माणिक दराती उठा चुका था , काठ और दराती के बीच में उसकी कलाई थी. एक प्रेम कहानी का इससे सस्ता अंत नहीं हो सकता था . ग़ालिब ने कहा कि वो ख़ुद ही लाचार हैं. बीवी से उनकी पटती नहीं है , सात बेटों में से कोई जवानी की दहलीज़ को छू कर नहीं आ पाया . ऐसे लाचार इंसान से किसी उपदेश की उम्मीद करना तुम्हारी तरफ़ से ग़ोया बे-ईमानी ही तो है . झटके भर में मीर भी गायब हो गए और ग़ालिब भी . इसी बीच ट्रिब्यून अख़बार आया तो उसमें बड़के भैया के शहीद होने की ख़बर छपी थी .
माणिक को ख़याल आया कि एक सस्ती लोकल मैगज़ीन में उसकी कहानी छपी है जिसमें कहा गया है कि प्रेम में नाकाम एक शोहेदे ने जान दे कर आत्महत्या कर ली. चटपटी कहानी का मसालेदार शीर्षक था 'कच्ची कलियां-ज़ालिम माली' . माणिक ने हांफ़ते हुए राष्ट्रीय समाचार पत्र ट्रिब्यून से मैगज़ीन दबा कर उसकी सांसे घोंट दीं . लोकल मैगज़ीन से अपनी फ़ोटो छपने से पहले फ़ाड़ फ़ेंकी .
लड़की को ख़त लिखा और और एक लिफ़ाफ़े में ट्रिब्यून के उस पेज के साथ लड़की को भेज दिया जिसमें बड़के भैया के शहीद होने की ख़बर छपी थी .ख़त में सिर्फ़ एक शेर लिखा गया था -
"अश्क़ आंखों में कब नहीं था
लहू आता है जब नहीं था "
यहां गांधी जी ने साधिकार असहयोग आंदोलन को रोक दिया तो कांग्रेस की कोख से जना जा रहा आज़ादी का शिशु बिलबिलाते बिलबिलाते चुप हो गया . मातमपुरसी हुई और शीघ्र ही नया एजेंडा जने जाने के लिए ख़याली संभोग धकमपेल के साथ शुरू हो गया . ख़ैर समाजवाद के ओरैंग उटांग के सामने बाकी सारे एजेंडों के लाल लाल बंदर कंखरी खुजाते ही नज़र आ रहे थे,मौके बे-मौके गुलाटी मार लेते और वापस वहीं के वहीं .
यहां लाहौर में एक अपेक्षाकृत विचार समृद्ध इलाके में माणिक , ग़ालिब और मार्क्स दोनों का मुह ताके जा रहा था . समाजवाद की मोटी मोटी किताबों पर ग़ालिब का छोटा सा शेर भारी पड़ जाता था और एक नया रोमैंटिक तसव्वुर तम्बू तान के बेशर्मियत बुलंद कर देता था .
बड़के भैया बड़ी देर से समाजवाद को नंगा कर के उसकी बेदाग़ियत और पाक-साफ़-गोई से माणिक को परिचित करा रहे थे लेकिन हमेशा की तरह उस पर कोई असर नहीं पड़ रहा था . बड़के भैया को आश्चर्य होता था कि ये ढीठ कैसे इतनी बे-अदबी से मार्क्स की किताबों पर ग़ालिब का शेर मूत कर चला जाता है , लगता है जैसे ज़बान की कड़छी से गज़लों का छौंका लगाने का मंतव्य सिर्फ़ उनका कलेजा जलाना ही हो .
ख़ैर लगन तो लगन थी, इस संग लागे या उस संग . उसकी लग़न एक लड़की से हो गई थी और वो थी भी कम्बख़्त ऐसी . गांधी के सर पर बाल नहीं थे , तो मार्क्स के सर और चेहरे पर ज़रूरत से ज्यादा परन्तु उस लड़की के सर पर जैसे एक एक बाल ख़ुदा ने ख़ुद काढ़ा हो . अपनी उंगलियों से घुमा कर घुंघराले लच्छे बना दिए थे ताकि महक कैद हो जाए उनमें . मार्क्स कुछ कहता तो पूरी की पूरी भीड़ सोचने पर विवश हो जाती लेकिन ये कुछ कहती तो पूरी की पूरी भीड़ सोचना छोड़ देती. गांधी कह देता तो सब के सब तश्तरियां उलट कर भूख हड़ताल पर बैठ जाते लेकिन ये मरजाणी अपने हांथ से परोस देती तो अच्छे अच्छे हड़ताली ख़ुद तशतरियां उलट कर कतार में भिखारी जैसे खड़े हो जाते . भूखी तश्तरियां ख़ुद-ब-ख़ुद अपनी तांबे की आंते तक हज़म कर जातीं .
माणिक बड़के भैया को ऐसी तमाम दलीलें दे सकता था क्योंकि वह जानता था कि भले ही वो क्रांति के महान चढ़ावे में एक चम्मच घी की छौंक भी ना लगा सका लेकिन प्रेम में अपना सब कुछ दांव पर रख चुका था . बड़के भैया ने कितनी ही बार उसे अपने साथ जुलूसों में ले जाना चाहा लेकिन उसका कहना था कि वो कायर था और उसे खून और लाठियों से घिन और डर आता है . आज फ़िर बहुत देर तक माणिक और बड़के भैया की बहस चली लेकिन माणिक को एक बार फ़िर ग़ालिब ज्यादा हसीन मालूम हुए और वो फ़िर एक शेर गुनगुनाते हुए निकल पड़ा -
"मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख के क्या रंग है तेरा मेरे आगे"
बड़के भैया ने अश्फ़ाक़ को याद किया और सरफ़रोशी की तमन्ना उसके मुंह पर दे मारनी चाही लेकिन तब तक जवाबी शेर उनके तमतमाए लाल गालों पर चांटे जैसा चिपकाया जा चुका था-
"इब्तदा-ए-इश्क़ है, रोता है क्या!
आगे आगे देखिए , होता है क्या "
बड़के भैया समझ गए कि जब कानों में इतना खूंट भरा हो तो जब तक तज़ुर्बे की दियासलाई से खूंट ना खोदा जाए ,कोई और बात घुसेगी ही नहीं .
एक दिन वो भी हुआ .माणिक के दोस्त ने उसे शाम को ख़बर दी कि लड़की का ब्याह मार्क्स के दुश्मन एक बुर्जुआ से तय कर दिया गया है और लड़की ने भी हां कर दी है क्योंकि आज के समय में पूंजीवाद को तो नकारा जा सकता है लेकिन पूंजीपति को अनदेखा नहीं किया जा सकता . छटपटाते हुए माणिक कांख में मीर और ग़ालिब को खोंसे उसके घर तक जा पहुंचा . चेहरे पर स्वदेशी जूता भी पड़ा और विलायत का लेदर भी . २३ बरस में पहली बार उसे ऐसा लगा कि उसकी धमनियों में खून जैसा कुछ गुड़-गुड़ कर रहा है और बाहर नहीं आया तो शिराएं दबाव बर्दाश्त नहीं कर पाएंगी और इस बखत नहीं तो अगले बखत देर-सबेर फ़ट पड़ेंगी . उसने इधर उधर रो पीट कर सबसे मदद की गुहार लगाई लेकिन इस पूंजीपति से लड़ने कोई मार्क्स नहीं आया, गांधी तो वैसे भी अहिंसा वादी था तो उससे मदद की आस लगाना बेमानी ही थी . मणिक ने ग़ालिब को याद किया तो पता चला कि वो भी किसी मयख़ाने के चक्कर लगाने में मशग़ूल था क्योंकि वहां उसे उसका नया मिसरा या शेर मिल सकता था और ग़ालिब के एक शेर की कीमत एक आम ज़िन्दगी से कहीं ज्यादा होती है .
इसी बीच ख़बर आई कि भगत सिंह गिरफ़्तार कर लिए गए . बड़के भैया ने माणिक से कोई भी उम्मीद करना ही छोड़ दिया था . वो अपने साथी क्रांति कारियों के साथ जवाबी कार्यवाही में निकल पड़े . लाठियां चलीं , रास्ता रोकने सिर और छातियां आईं . चाकू खरबूजे पर गिरे और कहीं कहीं खरबूजे खुद चाकू पर सगर्व कूद पड़े .
इधर माणिक मियां का हाल चाल लेने साक्षात ग़ालिब झूमते हुए आए . उसकी तरफ़ पान की गिलौरी और थोड़ा सा चूना बढ़ाया . निशाना गलत लग गया , ज़रा सा चूना उसके ज़ख़मों पर गिर गया . माणिक तिलमिलाया , बिलबिलाया लेकिन कुछ कह नहीं सका क्योंकि वो कमज़ोर था और ख़ून के रंग भर से उसे बड़ा डर लगता था .लेकिन उसने देखा कि ग़ालिब के ग़ुलाब और पान के कत्थे का रंग भी वही था . उसके जी में आया कि वो भी कुछ ऐसा कर दिखाए कि साले इश्क़ को गाली देने वाले और उसे कमज़ोर कहने वालों का कलेजा सिकुड़ कर पुड़िया हो जाए .
उधर बड़के भैया एक लाठी का कोप भाजन बन गए और मौके पर ही मार्क्स की गोद में सो गए .माणिक ने देखा कि गांधी ने ख़ुद अपनी सफ़ेद धोंती बेचारे शहीद को उढ़ाई थी . और यहां ग़ालिब सिर्फ़ पान चबाने में मशग़ूल थे . माणिक ने मीर का मुह ताका तो उसने कहा कि उसे पहले मीर के पास आना चाहिए था , तुम साले ग़ालिब के पास क्यों गए-
"रेख़्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो "ग़ालिब"
कहते हैं अगले ज़माने में कोइ मीर भी था "
माणिक दराती उठा चुका था , काठ और दराती के बीच में उसकी कलाई थी. एक प्रेम कहानी का इससे सस्ता अंत नहीं हो सकता था . ग़ालिब ने कहा कि वो ख़ुद ही लाचार हैं. बीवी से उनकी पटती नहीं है , सात बेटों में से कोई जवानी की दहलीज़ को छू कर नहीं आ पाया . ऐसे लाचार इंसान से किसी उपदेश की उम्मीद करना तुम्हारी तरफ़ से ग़ोया बे-ईमानी ही तो है . झटके भर में मीर भी गायब हो गए और ग़ालिब भी . इसी बीच ट्रिब्यून अख़बार आया तो उसमें बड़के भैया के शहीद होने की ख़बर छपी थी .
माणिक को ख़याल आया कि एक सस्ती लोकल मैगज़ीन में उसकी कहानी छपी है जिसमें कहा गया है कि प्रेम में नाकाम एक शोहेदे ने जान दे कर आत्महत्या कर ली. चटपटी कहानी का मसालेदार शीर्षक था 'कच्ची कलियां-ज़ालिम माली' . माणिक ने हांफ़ते हुए राष्ट्रीय समाचार पत्र ट्रिब्यून से मैगज़ीन दबा कर उसकी सांसे घोंट दीं . लोकल मैगज़ीन से अपनी फ़ोटो छपने से पहले फ़ाड़ फ़ेंकी .
लड़की को ख़त लिखा और और एक लिफ़ाफ़े में ट्रिब्यून के उस पेज के साथ लड़की को भेज दिया जिसमें बड़के भैया के शहीद होने की ख़बर छपी थी .ख़त में सिर्फ़ एक शेर लिखा गया था -
"अश्क़ आंखों में कब नहीं था
लहू आता है जब नहीं था "
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