मार्क्स का जना समाजवाद नाम का ओरैंग उटांग साम्राज्यवाद के बड़े बड़े चिम्पांजियों को हज़म करता जा रहा था और इतिहास के बीहड़ में धब्बे जैसे दिखते झाड़नुमा ग़ुलाम उपनिवेशों को अपनी मुट्ठी से उखाड़कर मुक्त करा रहा था. भारत समेत समूचे विश्व में समाजवाद-साम्यवाद की जय जयकार थी . बुर्जुआ वर्ग अपनी तशरीफ़ बचाने में मशग़ूल था और शोषित वर्ग तशरीफ़ घिसने में.
यहां गांधी जी ने साधिकार असहयोग आंदोलन को रोक दिया तो कांग्रेस की कोख से जना जा रहा आज़ादी का शिशु बिलबिलाते बिलबिलाते चुप हो गया . मातमपुरसी हुई और शीघ्र ही नया एजेंडा जने जाने के लिए ख़याली संभोग धकमपेल के साथ शुरू हो गया . ख़ैर समाजवाद के ओरैंग उटांग के सामने बाकी सारे एजेंडों के लाल लाल बंदर कंखरी खुजाते ही नज़र आ रहे थे,मौके बे-मौके गुलाटी मार लेते और वापस वहीं के वहीं .
यहां लाहौर में एक अपेक्षाकृत विचार समृद्ध इलाके में माणिक , ग़ालिब और मार्क्स दोनों का मुह ताके जा रहा था . समाजवाद की मोटी मोटी किताबों पर ग़ालिब का छोटा सा शेर भारी पड़ जाता था और एक नया रोमैंटिक तसव्वुर तम्बू तान के बेशर्मियत बुलंद कर देता था .
बड़के भैया बड़ी देर से समाजवाद को नंगा कर के उसकी बेदाग़ियत और पाक-साफ़-गोई से माणिक को परिचित करा रहे थे लेकिन हमेशा की तरह उस पर कोई असर नहीं पड़ रहा था . बड़के भैया को आश्चर्य होता था कि ये ढीठ कैसे इतनी बे-अदबी से मार्क्स की किताबों पर ग़ालिब का शेर मूत कर चला जाता है , लगता है जैसे ज़बान की कड़छी से गज़लों का छौंका लगाने का मंतव्य सिर्फ़ उनका कलेजा जलाना ही हो .
ख़ैर लगन तो लगन थी, इस संग लागे या उस संग . उसकी लग़न एक लड़की से हो गई थी और वो थी भी कम्बख़्त ऐसी . गांधी के सर पर बाल नहीं थे , तो मार्क्स के सर और चेहरे पर ज़रूरत से ज्यादा परन्तु उस लड़की के सर पर जैसे एक एक बाल ख़ुदा ने ख़ुद काढ़ा हो . अपनी उंगलियों से घुमा कर घुंघराले लच्छे बना दिए थे ताकि महक कैद हो जाए उनमें . मार्क्स कुछ कहता तो पूरी की पूरी भीड़ सोचने पर विवश हो जाती लेकिन ये कुछ कहती तो पूरी की पूरी भीड़ सोचना छोड़ देती. गांधी कह देता तो सब के सब तश्तरियां उलट कर भूख हड़ताल पर बैठ जाते लेकिन ये मरजाणी अपने हांथ से परोस देती तो अच्छे अच्छे हड़ताली ख़ुद तशतरियां उलट कर कतार में भिखारी जैसे खड़े हो जाते . भूखी तश्तरियां ख़ुद-ब-ख़ुद अपनी तांबे की आंते तक हज़म कर जातीं .
माणिक बड़के भैया को ऐसी तमाम दलीलें दे सकता था क्योंकि वह जानता था कि भले ही वो क्रांति के महान चढ़ावे में एक चम्मच घी की छौंक भी ना लगा सका लेकिन प्रेम में अपना सब कुछ दांव पर रख चुका था . बड़के भैया ने कितनी ही बार उसे अपने साथ जुलूसों में ले जाना चाहा लेकिन उसका कहना था कि वो कायर था और उसे खून और लाठियों से घिन और डर आता है . आज फ़िर बहुत देर तक माणिक और बड़के भैया की बहस चली लेकिन माणिक को एक बार फ़िर ग़ालिब ज्यादा हसीन मालूम हुए और वो फ़िर एक शेर गुनगुनाते हुए निकल पड़ा -
"मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख के क्या रंग है तेरा मेरे आगे"
बड़के भैया ने अश्फ़ाक़ को याद किया और सरफ़रोशी की तमन्ना उसके मुंह पर दे मारनी चाही लेकिन तब तक जवाबी शेर उनके तमतमाए लाल गालों पर चांटे जैसा चिपकाया जा चुका था-
"इब्तदा-ए-इश्क़ है, रोता है क्या!
आगे आगे देखिए , होता है क्या "
बड़के भैया समझ गए कि जब कानों में इतना खूंट भरा हो तो जब तक तज़ुर्बे की दियासलाई से खूंट ना खोदा जाए ,कोई और बात घुसेगी ही नहीं .
एक दिन वो भी हुआ .माणिक के दोस्त ने उसे शाम को ख़बर दी कि लड़की का ब्याह मार्क्स के दुश्मन एक बुर्जुआ से तय कर दिया गया है और लड़की ने भी हां कर दी है क्योंकि आज के समय में पूंजीवाद को तो नकारा जा सकता है लेकिन पूंजीपति को अनदेखा नहीं किया जा सकता . छटपटाते हुए माणिक कांख में मीर और ग़ालिब को खोंसे उसके घर तक जा पहुंचा . चेहरे पर स्वदेशी जूता भी पड़ा और विलायत का लेदर भी . २३ बरस में पहली बार उसे ऐसा लगा कि उसकी धमनियों में खून जैसा कुछ गुड़-गुड़ कर रहा है और बाहर नहीं आया तो शिराएं दबाव बर्दाश्त नहीं कर पाएंगी और इस बखत नहीं तो अगले बखत देर-सबेर फ़ट पड़ेंगी . उसने इधर उधर रो पीट कर सबसे मदद की गुहार लगाई लेकिन इस पूंजीपति से लड़ने कोई मार्क्स नहीं आया, गांधी तो वैसे भी अहिंसा वादी था तो उससे मदद की आस लगाना बेमानी ही थी . मणिक ने ग़ालिब को याद किया तो पता चला कि वो भी किसी मयख़ाने के चक्कर लगाने में मशग़ूल था क्योंकि वहां उसे उसका नया मिसरा या शेर मिल सकता था और ग़ालिब के एक शेर की कीमत एक आम ज़िन्दगी से कहीं ज्यादा होती है .
इसी बीच ख़बर आई कि भगत सिंह गिरफ़्तार कर लिए गए . बड़के भैया ने माणिक से कोई भी उम्मीद करना ही छोड़ दिया था . वो अपने साथी क्रांति कारियों के साथ जवाबी कार्यवाही में निकल पड़े . लाठियां चलीं , रास्ता रोकने सिर और छातियां आईं . चाकू खरबूजे पर गिरे और कहीं कहीं खरबूजे खुद चाकू पर सगर्व कूद पड़े .
इधर माणिक मियां का हाल चाल लेने साक्षात ग़ालिब झूमते हुए आए . उसकी तरफ़ पान की गिलौरी और थोड़ा सा चूना बढ़ाया . निशाना गलत लग गया , ज़रा सा चूना उसके ज़ख़मों पर गिर गया . माणिक तिलमिलाया , बिलबिलाया लेकिन कुछ कह नहीं सका क्योंकि वो कमज़ोर था और ख़ून के रंग भर से उसे बड़ा डर लगता था .लेकिन उसने देखा कि ग़ालिब के ग़ुलाब और पान के कत्थे का रंग भी वही था . उसके जी में आया कि वो भी कुछ ऐसा कर दिखाए कि साले इश्क़ को गाली देने वाले और उसे कमज़ोर कहने वालों का कलेजा सिकुड़ कर पुड़िया हो जाए .
उधर बड़के भैया एक लाठी का कोप भाजन बन गए और मौके पर ही मार्क्स की गोद में सो गए .माणिक ने देखा कि गांधी ने ख़ुद अपनी सफ़ेद धोंती बेचारे शहीद को उढ़ाई थी . और यहां ग़ालिब सिर्फ़ पान चबाने में मशग़ूल थे . माणिक ने मीर का मुह ताका तो उसने कहा कि उसे पहले मीर के पास आना चाहिए था , तुम साले ग़ालिब के पास क्यों गए-
"रेख़्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो "ग़ालिब"
कहते हैं अगले ज़माने में कोइ मीर भी था "
माणिक दराती उठा चुका था , काठ और दराती के बीच में उसकी कलाई थी. एक प्रेम कहानी का इससे सस्ता अंत नहीं हो सकता था . ग़ालिब ने कहा कि वो ख़ुद ही लाचार हैं. बीवी से उनकी पटती नहीं है , सात बेटों में से कोई जवानी की दहलीज़ को छू कर नहीं आ पाया . ऐसे लाचार इंसान से किसी उपदेश की उम्मीद करना तुम्हारी तरफ़ से ग़ोया बे-ईमानी ही तो है . झटके भर में मीर भी गायब हो गए और ग़ालिब भी . इसी बीच ट्रिब्यून अख़बार आया तो उसमें बड़के भैया के शहीद होने की ख़बर छपी थी .
माणिक को ख़याल आया कि एक सस्ती लोकल मैगज़ीन में उसकी कहानी छपी है जिसमें कहा गया है कि प्रेम में नाकाम एक शोहेदे ने जान दे कर आत्महत्या कर ली. चटपटी कहानी का मसालेदार शीर्षक था 'कच्ची कलियां-ज़ालिम माली' . माणिक ने हांफ़ते हुए राष्ट्रीय समाचार पत्र ट्रिब्यून से मैगज़ीन दबा कर उसकी सांसे घोंट दीं . लोकल मैगज़ीन से अपनी फ़ोटो छपने से पहले फ़ाड़ फ़ेंकी .
लड़की को ख़त लिखा और और एक लिफ़ाफ़े में ट्रिब्यून के उस पेज के साथ लड़की को भेज दिया जिसमें बड़के भैया के शहीद होने की ख़बर छपी थी .ख़त में सिर्फ़ एक शेर लिखा गया था -
"अश्क़ आंखों में कब नहीं था
लहू आता है जब नहीं था "
Sunday, February 15, 2009
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12 comments:
kai dino k bad badhiya kahani padhne ko mili.....really nice and refreshing story......
wonderfully described...
a nice combination of those days political and regional beliefs and their influence by the then writers.
kambakht ishq hota hi hai itna krur...
dimag hote hue bhi dil se sochta hai, khalayo me jeeta hai aur jab maykhane ke dehleej par lachar ashiq dhehta hai...na koi ghalib bachata hai na gandhi.
bade hi sahi time pe post kiya hai "15 Feb Death Anniversary of MIRZA GHALIB"
.....
unke dekhe se jo aa jaatee hai muNh par raunaq,
woh samajhte haiN ke beemaar ka haal achcha hai,
.....
ragoN meiN dauDte firne ke ham naheeN qaayal
jab aaNkh hee se na Tapka to fir lahoo kya hai ?
.....
bahut khoob nikhil bhaijaan
allahtaalah ki di gayi kaabiliyat ko bahut hi behatreen tareeke se lafzon mein piroya hai aapne...wakaii mein samaaN bAndh diya... :)
sahi kahani hai...aur urdu badi khubsoorti se istemaal ki hai
i loved the ending very much. Actually i was hoping for sth else but thankfully it wasnt so.
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है,
वो हर बात पर कहना कि "यूँ होता तो क्या होता!"
आफ़रीं मियाँ।
बहुत हीं सुंदर कसीदाकारी की है आपने।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक
बहुत खूब | ग़ालिब और गांधी के द्वंद की अद्भुत विवेचना |
वैसे तो दोनों ही बलिदान मांगते हैं पर गाँधी के लिए लाठियाँ खाने का मज़ा कुछ और है और ग़ालिब के लिए सर कलम करवाने का कुछ और |
शब्दों के जादूगर को सलाम |
bahut accha hai...
padhkar lagta hai..duniya ko rangeen goggles pehanne ki aadat ho gayi hai, sab kuch apne rang me dekhna chahte hai.
mujhe kabristan ki chahat hai,
tum kurukshetra yaad dilate ho,
mai arthsastra se chidta hun
tum marx mujhe padhate ho
acchi likhi hai
agla comment kuchh dino mein
nice work....
thanks for accepting the change.
U r loved n will always be loved for ur writings.
Its good to see freshness of idea n simplicity of language.
Love ya " "....
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