Wednesday, March 19, 2008

अल्हड़ छोरी (हक़ीकत)

ऐंवैइ कोई ख्वाब़ पकड़कर
अगली पगली फ़िरती है
इश .. अपनी चंट मंडली संग
वो कितना हल्ला करती है !!
मेरी हर इक बात पकड़कर
इतना झगड़ा करती है
इश.. उंगली मेरी काट दांत से
दुष्ट चबाया करती है ..
ना जाने किसकी है नेमत
जो इतनी प्यारी दिखती है
क्या सूरज ..क्या बेनूर चन्द्रमा
सबसे बेहतर फ़बती है ...

मेरी सर्द हथेली वो
आंखों से चूमा करती है
क्या होश संभालूं जान तलक
जब मुझको घूरा करती है
वो सपनों की हरछठ माई
अब मेरे संग टहलती है
किस फ़ुरसत की वो हरकत है
धरती की है या जन्नत है
ना जाने कितनी पाक़ परी
जो इन्नी सोंणी लगती है
क्या सोनजुही क्या अली कली
उन सबसे बेहतर खिलती है ..

सारी दुनिया की दादी
बस मुझसे ही शर्माती है
इश..चिढ़ जाए फ़िर देखो तो
घंटों मिन्नत करवाती है
वो सबको तो घूरेगी पर ना
मुझसे नज़र मिलाती है
बस दाएं बाएं देखेगी
गठरी जैसी गुंथ जाती है
ना जाने कितनी अल्हड़ है
फ़िर भी इतना घबराती है
क्या छुई मुई क्या प्रथम पुष्प
सबसे ज्यादा शरमाती है .

जो अम्मा से सब कुछ कह दे
बस मेरी बात छिपाती है
बोला ना जाए झूठ मगर
फ़िर भी तो बात बनाती है
हर ज़र्रे तक उसको चाहूं
कितनी कस्में रखवाती है
वो अब भी छोटे दिए चार
अपने मंदिर धरवाती है
ना जाने कितनों की 'मिन्नत'
मेरी 'मन्नत' बन जाती है
क्या हसरत और क्या दुआ पाक़
किस्मत से ही मिल जाती है .

वो कविता की 'अल्हड़ छोरी' ...
जब अनायास मिल जाती है ...
तो सांसे क्या और धड़कन क्या
सब मेरे संग बह जाती हैं
अब कहां 'निखिल' क्या 'शब्द' मियां
सब ज़ुर्रत सी हो जाती हैं
ना तलब रही ना तड़प शेष
क्या सराबोर कर जाती है
तू कौन कबीले की ठगनी
अंगनी मंगनी कर जाती है
ना नगर बचें , ना कबर बचें
क्या झाड़ फ़ूंक कर जाती है .

Thursday, March 13, 2008

मेरा कुछ सामान ..

आज कुछ सामान लिए बैठा हूं
टटोलता हूं तो
मेरी कैफ़ियत है..
जो हर रात
चांद के कटोरे से चुराकर
इकट्ठा की है .
तेरी छुअन है ...
जिसका ज़ायका
मेरी उंगली के
अखिरी कोने से
अभी तक चिपका है .
तेरी अखिरी टूटी
पलक का काला रेशम है
जिसके धागे से
मैंने एक बावला सा
सपना बांध रखा है .
तेरी एक ताज़ा
खिलखिलाहट भी है
जिसकी खनक से
मेरी अखिरी गज़ल
अभी तक ज़िन्दा है.
तेरे रूठने का
एक मज़ेदार किस्सा भी
और साथ में
मेरे मनाने की
दिलचस्प कश्मकश भी है .
मेरा सबसे कीमती
पहला आंसू है
जो कि तेरे
कांधे से ढुलकने से पहले
बटोरा हुआ है .
एक खन्ज़र है
जिसे तेरी नज़र से
चुपचाप तोड़ा था
उसकी धार का निशान
अभी भी सुर्ख़ और ताज़ा है .
एक नमाज़ की दुआ भी है
जिसके पल्लू से
कबूल होने की अर्ज़ी
सिली हुई है .
कुछ एक फ़ुटकर
हांफ़ते हुए
लंगड़े से कांटे हैं
जो तेरे इन्तज़ार में
आलसी घड़ी से
चिढ़कर उखाड़े थे .
एक पनपता सा प्यार है...
एक तू है ..
और एक मैं भी .
आज कुछ सामान लिए बैठा हूं .
सामान कीमती सा है .

"मैं शब्द हूं"

मैं अपने ही जीवन का पिघला सूरज हूं
जो अपने यश की कीर्ति निगलकर भस्म हो चला
मैं अपने ही उद्गम से भटका निर्झर हूं
जो अपने कद के भय से मिटकर बूंद हो चला
मैं उम्मीदों का सिन्धु डूबता उतराता सा
जो अपने तट की परिधि खोजता लुप्त हो चला
मैं सनेह का प्यासा भिक्षुक , आतुर , पागल
जो अपना भावुक तरल चूसकर ठूंठ हो चला
मैं अपने ही बोझिल फलकों पे इन्द्रधनुष सा
जो अपने रंग की चकाचौन्ध से नूर खो चला
मैं अपनी ही आंखों का आंसू बहा अलग सा
जो अपनी ही नजरों से गिरकर भूल हो चला
मैं अपनी रिसती कलम से छूटा शब्द अनोखा
जो पन्नों में फंसकर जीवन भर कैद हो चला
मैं अपने ही साहस का उड़ता मूर्ख पतन्गा
जो अन्तराग्नि में जलकर पल में छार हो चला

पर कहने को..

वही कातर निगाहें..
वही उन्मुक्त सी बाहें..
वही ताकती राहें..
वही अनसुनी आहें..
वही तुम..
वही मैं ..
वही छटपटाता सा प्यार..
पर कहने को..
एक और नया साल..

शिद्दत

मैं आज भी
कलम जैसा कुछ
उठाता तो हूं
पर अब उसकी हलक में
शब्द नहीं रेंगा करते .
हरेक रात
पलकों के शामियाने
आंखों पर ढांक के
रखता भी हूं
पर कोरी झपकियां भी
ताने कसती हैं
रात संजीदा ही रहे
इसलिए ...
सांसों की आवाज़ें
भी नहीं करता
पर अखिरी बार कब
एक जोड़ी घन्टे सो पाया था...
कुछ ठीक से याद नहीं आता
कविताएं अब भी बनाता हूं
पर छन्दों में ढाल नहीं पाता
हरेक नज़्म तौला करता हूं
कम्ब्ख़्त कुछ हल्की सी लगती है
गोया चिढ़कर ...
गज़लों के कागज़..
फ़ाड़ता, फ़ेंकता रहता हूं .
हर दूसरे लम्हें से
रूठ बैठता हूं
पर तेरी मुस्कुराहटों की खनक
यहां तक आती है...
सबसे मिलता भी हूं
पर सब के सब
तेरी परछाइयों के
नमूने से लगते हैं..
तू कभी कुछ खुल कर
नहीं कहती
पर इश्क़ की "हां"
तेरे होठों पर
अभी तक...
चिपकी सी दिखती है .
शायद अभी कुछ बोल बैठेगी
इसी खुश-फ़हमी
की किश्तों में
सांसे गिरवी रखा करता हूं
तुझ पर कुछ खास हक़
नहीं बनता मेरा
लेकिन तेरे जूड़े पे
कभी कभी
मेरे शब्द गुंथे मिल जाते हैं
कांधे के तिल
महावर की लाली
गालों के भंवर
और आंखों की पलकों पर
मेरी गज़लें
अटकी सी मिला करती हैं...
तू इश्क़ में हां कहने
में वक़्त लेने की
अपनी आदत से परेशां है..
और मैं उस आदत की
शिद्दत से..
तू मेरी गज़लों की
नापाक फ़ितरत से परेशां है
और मैं तेरी बेहद पाक
मासूमियत से...

काश्मीर

कहीं किसी कोने में ,
वैधव्यतुषारव्रिता यथा विधुलेखा
तो कहीं दूब पर
लाल ओस की रेखा
कहीं किसी केसर क्यारी में
बेसुध तान्डव नर्तन
तो कहीं किसी के केशों का
वो नदी तटों पर कर्तन
मानव का दानव बनना
पैशाची रक़्त पिपासा
उन्मादों के पागलपन में
आयत फ़ुंकी धुंआ सा
बुज़ू ख़ूनी शराबों से
दरकती ईदगाहों पर
करोगे क्या बसाकर आशियाने....
कब्रगाहों पर ????

बिना तवज़्ज़ो अर्ज़..

मैं गुमनाम बिसारी पाती
सूखी खूनी मुहर लिये
चार अनसुने शेर छ्पाये
बिना तवज़्ज़ो अर्ज़ किये
मैं स्वाती का पगला चातक
प्यासी अपनी चोंच लिये
कूक कूक पर हूक सजाये
अथक निमन्त्रण साथ लिये
मुझे बनाकर भूला ईश्वर
कुछ अच्छे की आस किये
अपनी गलती पर कुढता वो
प्रथक तूलिका भस्म किये
मैं मेघा का भिक्षुक मरुधर
खड़ा ठूंठ सा बोझ लिये
अपनी जननी की छाती पे
क्यूं कुपुत्र का नाम किये
पारिजात से लदे बाग में
मैं झाड़ी का कुटज बिना जल
सागर के मन्थन मे निकला
शिव को अर्पित तिक्त हलाहल
छाया की चाहत में जब भी
मैं बरगद चढ़ सोया हूं
कलियों के लोभी बसन्त के
स्वागत में गिर रोया हूं
चिकनी माटी मैं आंगन की
संदी पडी थी , जड़ थी
तुम कुम्हार थे,तुमने मुझमें
आक्रिति खूब भरी थी
रंग भरे थे इन्द्रधनुष के
आंवे पर खूब पकाया
चटक हुआ जब गोल परिधि पर
तब था हाट चढ़ाया
मेरी थी वह खूब नियति
मैं जा पहुंचा मधुशाला
ऊपर से नीचे मुझको
हाला से लब भर डाला
घुट घुट मरता था वेदी पर
झटपट मैं तड़पा था
पता नहीं क्यों मुझपे तेरा
क्रोध अथक बरपा था??
शक्तिमान है तू,क्यों ना फ़िर
मुझको ठोकर मारी
फूट गया होता उस छण
पहली मारी किलकारी
हां नर्क मुझे दे तू अपनी
ये स्वर्ग मुझे है भारी
नर्क मेरी है जीत,विधाता
और तेरी है हारी...
हां तेरी है हारी....

.........फ़ुरक़त.......

आ इश्क़ के उत्सव मना लें
ग़र तुझे फ़ुरसत ज़रा हो.
बिन्दु की दूरी मिटा दें
ग़र कहीं फ़ुरक़त ज़रा हो.
चल लिपट लें जब तलक़ की
बदन अपने छिल ना जाये.
होंठ मेरे और तेरे
हर तलब तक सिल ना जायें.
आ नज़र का नूर खों दे
इस कदर घूरें ज़िरह तक.
ह्रिदय चिढ़ कर हांफ़ ले
क्यूं बे वज़ह धड़के सुबह तक.
आ नियाज़ों को तकल्लुफ़ का
तनिक मौका न दें.
ला सितम सादा चखें
यूं व्यर्थ का छौंका न दें.
आ ना.. हस्ती फ़ना कर दे
छोड़ अब ना दे दलीलें.
कत्ल कर के जान ले ले
आज़मा ले ये शक़ीलें.
ज़ुल्फ़ में ऐसा छुपा ले
सांस भी ना हो मयस्सर.
खूब तो अब जी चुका हूं
अब किसे जीना मुकर्रर ??

काफ़िर कबरी

कोमल कपोल
कमनीय केश
करखा काले कजरारे
कातर कन्चुक
कबरी काफ़िर
कर कन्गन
कनक कटारी
कटि की कातिल कामुकता
कानन कर्णफ़ूल किलकारे
किंचित कुंचित केश
कांच की किरचों के
कर्पूर कमल की कान्ति
किशोरी;
काहे कत्ल कमाये??

"तुम और मैं"

तुम आकर्षण का केन्द्र बिन्दु
मैं दूर परिधि के बाहर
तुम बसन्त पे फ़िद कली
मैं युग से शापित पतझर
तुम चपल चटक चंचल निर्झर
मैं उसका पिसता प्रस्तर
तुम सावन की पगली मेघा
मैं उसका भिक्षुक मरुधर
तुम फ़ागुन की अल्हड़ रंगत
मैं रंग अकेला काला
तुम नयनों की मादक साकी
मैं मय से खाली प्याला
तुम डाली की भोली कोयल
मैं एक अनसुना चातक
तुम भेजी परियों की क्रति
मैं जग में आया नाहक.........

मौत


जीवन के भोले कपाल पे
रूखे सच का ,रक्त सना हस्ताक्षर
निश्चित मौत
मिटती, बनती, पुनः बिगड़ती
हर आशा की कथावस्तु की इतिश्री
अन्तिम मौत
आपाधापी के रेलों
औ पल छिन पल निर्बाध त्वरा
के क्रम पे यम की मुश्टिनाद
ये मौत
महाउदधि की हर तरन्ग
की चट्टानों से टक्कर
यूं कतरा कतरा छलती
औ चुप्पी पे हंसती,
पगली सी मौत
बूढ़ी नानी की थपकी
पर वो पूनम के लम्बे किस्से
और किस्सों के हर पन्ने की ये चिन्दी
बिखरी खोयी सी मौत
लैला मजनू के रब से भी पाक
ज़वां सच्चे इश्कों पे
जगवालों का और भी सच्चा
कड़ा तमाचा
ये तपाक सी मौत
उसी मौत के पन्जों में
इक पिन्जरबद्ध हसीं मैना
फिर भी इठलाता हंसता ;
यूं जीवट का परिचय
बनता सा जीवन
भेजा ही है जिसे गया
इस मृत्यु देश में मौत खोजने
फिर भी अट्टाहस करता
खुल के अपनी नियति पे
अल्हड़ जीवन
खूब पता है राग रहेगा
सदा अनसुना
सदा अनकहा
फिर भी दिल से तान छेड़ता
इरशादों के बिना अर्ज़ ...
ये जीवन

नज़र

कल तलक़ जो नज़र थी ,
वो हो चली है आज नश्तर .
किश्त में छलनी हुए ,
बेआबरू भी मेरे बख़्तर .
आखिरी ज़र्रे तलक़ ,
होते रहे हम आज बन्जर .
हर तलब की हर तड़प को ,
चख गए दो तेरे खन्जर .
टोटके असमर्थ मेरे ,
गज़ब चोखे तेरे मन्तर .
तेरी आंखों के नगर में ,
टंग रहे हैं मेरे पिन्जर .
पलक के हर छोर से मैं
बांधता हूं ज़िरह लगर
घुल चुका हूं इस कदर कि
सांस भी ना हो मयस्सर .

खलिश

जिंदगी मैं पतंग तू इक डोर सी है
मेरे हर परवाज़ के उस छोर सी है
आ ना तगड़ी इस कदर इक ढील दे दे
एक मांझा चूम के फ़ाख्ता हो लूं .....

कैस सा उश्शाक़ मैं तू मंझी लैला
हर छिटकते पत्थरों के खेल सी है
आ ना तगड़ा अखिरी सा वार कर दे
दोज़खों से जन्नतों का नूर हो लूं ....

ज़िन्दगी मैं लहर तू चट्टान पगली
साहिलों के रोज़ जमते दर्प सी है
इक दफ़ा फ़िर आज चकनाचूर कर तो
रोज़ उठने के भरम से दूर हो लूं .....

बन्ज़रों की खलिश मैं तू बूंद उजली
बदलियों के पिघलते से मोम सी है
एक तगड़ी आखिरी बौछार कर तो
ज़र्रे ज़र्रे तक सिमट के भूल हो लूं ....

एक नाकाम शायर का ख़त.....

सुना है कि इश्क़ पर मेरी गज़लें आजकल तमाम सोलह की उमर वाली लड़कियों को गोया पागल बनाये दे रहीं हैं . उनकी गलियों में मेरी कलम किसी मुहलगे उश्शाक़ से कम नहीं है और मेरे मिसरों को उनकी चोटियों के लाल गुलाब, उनकी ही नज़र बचा के घड़ी-घड़ी चूम लिया करते हैं. 

ये भी सुनता हूं कि किसी मोहतर्मा ने कलाई पर हमारा कीमती क़लाम गुदवा रक्खा है और तबसे उन्हें बेवजह ही दोनों पलकों पर कलाई सेंकने की नई आदत सी लग गई है...

लेकिन मेरा हर शेर, हर एक क़लाम, हर दूसरी गज़ल और ये बड़बोली कलम आग में जाने कितनी बार , मेरे ही हांथों, कब के खाक़ कर दिये जाने चाहिए थे.....ताउम्र लिख के भी मैं तुझे केवल इतना नहीं जता पाया, कि मैं कोई शायर नहीं था ... 


सारी दुनिया को इश्क़ का फ़लसफ़ा हर बारीक ज़र्रे तक समझा सका, पर तुझे आज तक नहीं बता पाया कि मेरा हर एक शब्द तुम थीं.... दुनिया जिन गज़लों को दर्द की अद्भुत कल्पना समझ के दाद के ठीकरे फोड़ती रही वो तो दरअसल कोरी सच्चाइयां ही थीं , जो तू मेरा कान पकड़ कर लिखाती रही....

मैं ताउम्र एक नाकाम शायर ही रहा क्योंकि अभी भी तुम मेरे क़लाम को मेरी कलम का कमाल मात्र समझ के अपनी गोल गोल आंखो से मुस्कुरा रही होंगी...और कल कहोगी, "निखिल ...!!! क्या खूब लिखा था....."

एक गांव में ....

एक गांव में ताज़ा बचपन
अमराई पे जुटता था
बौराई चटकी कलियों पे
पागलपन सा लुटता था.
चिकने पीले ढेले लाकर
उनकी हाट जमाता था
पौआ भर गुड़ से भी ज्यादा
उनका मोल लगाता था.
जब नमक लगी रोटी मुट्ठी में
भरकर मजे से खाता था..
तो फसल चाटती हर टिड्डी को
जमकर डांट लगाता था.
अमिया की लंगड़ी गुठली से
सीटी मस्त बजाता था
जब टीले पे बैठा राजा बन
सबपर हुकुम चलाता था.
तो कभी सूर्य तो कभी पवन को
मुर्गा मस्त बनाता था.
कोइ उसके बुढ्ढे चूल्हे में
जब बांसा स्वप्न पकाता था
वो गोबर लिपे चबूतर पे
कोइ ताज़ा स्वांग रचाता था .

एक गांव मे ताज़ा बचपन....

मैं ही तो हूं....

मुठ्ठी भर घुटता अरमान
बुझी हुई राख सा अभिमान
अखिरी खरीदी हुई सांस
तिरसक्रित सी पड़ी आस
मैं ही तो हूं....

दस जोड़ी वर्षों का व्यर्थ
ठुकराई सी गज़लों का अर्थ
दो कौड़ी के हौसलों का दंश
पुराने फ़टे कागज़ का अन्श.
हां ..मैं ही तो हूं.

ज़लील सा करता तेरा वो लतीफ़ा
दाद देते समाज के ठहाकों का वजीफ़ा
हर ज़मात में अखिरी
हर तमाचे में हाज़िरी
मैं ही तो हूं..

एक बेकार सरकारी एहसान
मुर्दा समाज का जलपान
तेरे हर ताने पे मौन
अपने ही प्रतिबिम्ब में कौन
हां... मैं ही तो हूं..

दीपावली

मैं हमेशा से मानता आया था कि दीपावली पूरे हिन्दुस्तान का त्यौहार है लेकिन आज जब गौर किया तो बहुतों के चेहरों पर इस तथ्य को नकारने वाले स्पष्ट हस्ताक्षर गढ़े मिले. फ़िर चाहे वो अस्सी घाट पे बैठे भिखारियों का समूह रहा हो , सिगरा चौराहे पर आज रात भी पान मसाले की लड़ियां बेचती पांच बरस की कातर निगाहें रहीं हों या फ़िर बनारस शहर के सबसे तिरस्क्रित गन्दे नाले के किनारे उससे भी ज्यादा तिरिस्क्रित अवस्था मे पड़े हुए उस शराबी का जीवित अथवा म्रित शरीर ही रहा हो. सबके लिए दीपावली के मायने अलग थे या फ़िर ये भी कह सकते हैं कि नहीं भी थे. इन्हीं सब के बीच सड़क पे कुन्टल भर पटाखों के चिथड़े पड़े हुए थे और उससे भी कहीं अधिक हर एक छण शून्य में लगातार स्वाहा हो रहा थे. भिखारन की आंखों में दीप जलना बाकी था , पांच बरस की मासूम आंखों में हर चवन्नी के साथ थोड़ा बहुत तो जलने भी लगा था पर शराबी शायद जलाना भी नहीं चाहता था क्योंकि उसे कोइ अधिक कारगर नुस्खा मिल चुका था. बहरहाल ....हिन्दुतान दीपावली मना रहा था...क्योंकि दीपावली पूरे हिन्दुस्तान का त्यौहार जो है.....

सोनजुही


अलसाई सी सोनजुही
बौराई सी महुआ की ओस 
चिर पलाश की मादकता
या मुक्त तबस्सुम लाखों कोस

छिपी उनींदी किरण पूस की
सप्तक का झंकृत उद्घोष
शरद रत्रि की नीरवता
या रति की सुन्दरता का कोष

जेठ दुपहरी की बदली
तुम निर्झर की छींटों का तोष
विधि ने हंस कर जो कर दी 
उस एक शरारत भर का दोष 

मेघों से जो रूठ के बरसी
हो ऐसी बरखा का रोष
बाहों में जो टूट के तरसी
भूली बिसरी खोई होश

शबनम.....

शबनमी ओस की एक बूंद
महुआ की पत्ती पर
तन्वंगी और उनींदी
हौले से पकता सूरज
बादल की भट्टी पर
कच्चा चटक करौंदी
बढ़ता पकता चढ़ता सूरज
भभक भभक जलता सूरज
कतरा कतरा जलती शबनम......
सिसक सिसक मरती शबनम.....

कमली

ये तुझे शरारत क्या सूझी
क्यों सुरमा आज नहीं डाला?
मय के सागर की सीमा को
कमली यों किलक मिटा डाला!!
ये अजब ढिठाई मय प्रदेश विच
अग्नि झरत झरानी है
औ जिन्हे फ़ांस के कत्ल किया
वो उसमे जलत जलानी हैं
उड रही कालिमा धूं धूं कर
घनघोर घटा घहरानी है
पल इस बैठक छिन उस करवट
नागिन फ़ुफ़कार डसानी है
जादू में ठगा अवाक मुग्ध
सन्सार तो आज नसानी है
तू अजब जहर मन्तर चोखा
क्या आज गयी बौरानी है?
लिख रहा शब्द सुलझा तुझ पर
बन रही तिलिस्म कहानी है
रति खडी ठगी उर्वशी मूक
सब अपना सिर खुजलानी हैं
हैं खडी सामने दर्पण के
सौ सौ मुख धर बिचकानी हैं

मेरे गांव का वो किसान..

जाने कितना स्वेद रिसा ?
बेमोल बिका , बेमौत मरा !
धरती की छाती से छनकर
पातालों तक व्यर्थ बहा .
निष्ठुर बादल का भी दिल
कतरा भर नही पसीजा करता
चीमड़ चमड़ी दरिया पिघले
पर वो दो आंसू ना रोता!!
दौलत का बेशर्म प्रभंजन
नाड़ी नाड़ी चाट चला
मज्जा सोख गयी खुद हड्डी
अन्तड़ियों ने धैर्य छला.
फिर भी ऊसर बन्जर में वो
बैलों से ज्यादा खपता है
उसके तन का काला कन्चन
सौ सौ सूरज छलता है!
फिर भी नमक लगी रोटी वो
छप्पन भोग सा खाता है
मेरे गांव का वो किसान..
नित भारत-वर्ष बनाता है...
नित भारत-वर्ष बनाता है...

"गोधरा"

रक्त की काषाय
लिप्सा
रुधिर मे अलमस्त
जिह्वा
अधर का
अभिषेक करती
लपलपाकर
गर्दनें गिरती
धड़ों से
छटपटाकर
मयानों की
जन्ग गलकर
छिटक आयी
झट पिघलकर
नोच डाले
नौ बरस के
शुष्क सीने
हवस के आखेट में
बचपने छीने...