ऐंवैइ कोई ख्वाब़ पकड़कर
अगली पगली फ़िरती है
इश .. अपनी चंट मंडली संग
वो कितना हल्ला करती है !!
मेरी हर इक बात पकड़कर
इतना झगड़ा करती है
इश.. उंगली मेरी काट दांत से
दुष्ट चबाया करती है ..
ना जाने किसकी है नेमत
जो इतनी प्यारी दिखती है
क्या सूरज ..क्या बेनूर चन्द्रमा
सबसे बेहतर फ़बती है ...
मेरी सर्द हथेली वो
आंखों से चूमा करती है
क्या होश संभालूं जान तलक
जब मुझको घूरा करती है
वो सपनों की हरछठ माई
अब मेरे संग टहलती है
किस फ़ुरसत की वो हरकत है
धरती की है या जन्नत है
ना जाने कितनी पाक़ परी
जो इन्नी सोंणी लगती है
क्या सोनजुही क्या अली कली
उन सबसे बेहतर खिलती है ..
सारी दुनिया की दादी
बस मुझसे ही शर्माती है
इश..चिढ़ जाए फ़िर देखो तो
घंटों मिन्नत करवाती है
वो सबको तो घूरेगी पर ना
मुझसे नज़र मिलाती है
बस दाएं बाएं देखेगी
गठरी जैसी गुंथ जाती है
ना जाने कितनी अल्हड़ है
फ़िर भी इतना घबराती है
क्या छुई मुई क्या प्रथम पुष्प
सबसे ज्यादा शरमाती है .
जो अम्मा से सब कुछ कह दे
बस मेरी बात छिपाती है
बोला ना जाए झूठ मगर
फ़िर भी तो बात बनाती है
हर ज़र्रे तक उसको चाहूं
कितनी कस्में रखवाती है
वो अब भी छोटे दिए चार
अपने मंदिर धरवाती है
ना जाने कितनों की 'मिन्नत'
मेरी 'मन्नत' बन जाती है
क्या हसरत और क्या दुआ पाक़
किस्मत से ही मिल जाती है .
वो कविता की 'अल्हड़ छोरी' ...
जब अनायास मिल जाती है ...
तो सांसे क्या और धड़कन क्या
सब मेरे संग बह जाती हैं
अब कहां 'निखिल' क्या 'शब्द' मियां
सब ज़ुर्रत सी हो जाती हैं
ना तलब रही ना तड़प शेष
क्या सराबोर कर जाती है
तू कौन कबीले की ठगनी
अंगनी मंगनी कर जाती है
ना नगर बचें , ना कबर बचें
क्या झाड़ फ़ूंक कर जाती है .
अगली पगली फ़िरती है
इश .. अपनी चंट मंडली संग
वो कितना हल्ला करती है !!
मेरी हर इक बात पकड़कर
इतना झगड़ा करती है
इश.. उंगली मेरी काट दांत से
दुष्ट चबाया करती है ..
ना जाने किसकी है नेमत
जो इतनी प्यारी दिखती है
क्या सूरज ..क्या बेनूर चन्द्रमा
सबसे बेहतर फ़बती है ...
मेरी सर्द हथेली वो
आंखों से चूमा करती है
क्या होश संभालूं जान तलक
जब मुझको घूरा करती है
वो सपनों की हरछठ माई
अब मेरे संग टहलती है
किस फ़ुरसत की वो हरकत है
धरती की है या जन्नत है
ना जाने कितनी पाक़ परी
जो इन्नी सोंणी लगती है
क्या सोनजुही क्या अली कली
उन सबसे बेहतर खिलती है ..
सारी दुनिया की दादी
बस मुझसे ही शर्माती है
इश..चिढ़ जाए फ़िर देखो तो
घंटों मिन्नत करवाती है
वो सबको तो घूरेगी पर ना
मुझसे नज़र मिलाती है
बस दाएं बाएं देखेगी
गठरी जैसी गुंथ जाती है
ना जाने कितनी अल्हड़ है
फ़िर भी इतना घबराती है
क्या छुई मुई क्या प्रथम पुष्प
सबसे ज्यादा शरमाती है .
जो अम्मा से सब कुछ कह दे
बस मेरी बात छिपाती है
बोला ना जाए झूठ मगर
फ़िर भी तो बात बनाती है
हर ज़र्रे तक उसको चाहूं
कितनी कस्में रखवाती है
वो अब भी छोटे दिए चार
अपने मंदिर धरवाती है
ना जाने कितनों की 'मिन्नत'
मेरी 'मन्नत' बन जाती है
क्या हसरत और क्या दुआ पाक़
किस्मत से ही मिल जाती है .
वो कविता की 'अल्हड़ छोरी' ...
जब अनायास मिल जाती है ...
तो सांसे क्या और धड़कन क्या
सब मेरे संग बह जाती हैं
अब कहां 'निखिल' क्या 'शब्द' मियां
सब ज़ुर्रत सी हो जाती हैं
ना तलब रही ना तड़प शेष
क्या सराबोर कर जाती है
तू कौन कबीले की ठगनी
अंगनी मंगनी कर जाती है
ना नगर बचें , ना कबर बचें
क्या झाड़ फ़ूंक कर जाती है .