उसे मैंने यूनीवर्सिटी के चाय कार्नर पर तमाम बार देखा और लगभग उतनी ही बार नज़रन्दाज़ भी किया . वजह ये थी कि वो किसी भी आलसी लेखक की दिमागी शिराओं से खेलने में सिद्धहस्त था . अपनी वेशभूषा और हरकत मात्र से वो चाय के साथ इतने सवाल छोड़ सकता था कि चाय उस रिवाज़ के साथ पी ही नहीं जा सकती थी जिस रिवाज़ से पीने का मैं शौकीन हूं . वो बिना शर्ट के लम्बे गले के दो ऊनी कत्थई स्वेटर , घुटने तक मुड़ी ख़ाकी पैंट में अपनी हरी पालीथीन के साथ कटिंग का कुल्हड़ लिए अमूमन दिख जाता था .यूनीवर्सिटी की लड़कियों को दरकिनार करके उसे घूरना दुस्साहस भी कहलाता , बेवकूफ़ी भी और ध्रिष्टता भी इसलिए मैंने कभी भी उसे इससे ज्यादा गौर से नहीं देखा था. वो अक्सर खुद की लिखी किसी कहानी या फ़िर अपने किसी नाटक की स्क्रिप्ट के साथ एक कटिंग पर घंटों गुजार दिया करता था .
उसके बारे में कालेज में कई तरह की बातें थीं , जैसे कि वो कुछ वर्ष पहले अपना मानसिक संतुलन खो बैठा था फ़िर भी वो पूरा पागल नहीं था बस थोड़ा सनकी था , वो मेकैनिकल डिपार्टमेंट में १२ वर्ष प्रोफ़ेसर रह चुका था और थिएटर का ख़ासा शौकीन हुआ करता था .मेरा ताल्लुक उससे बस इतना था कि उसने मुझे कुछ एक बार अपने नाटक की स्क्रिप्ट थमा दी थी जो की वो साप्ताहिक तौर पर लिखता था और कुछ एक लोगों को बांटकर उनकी टिप्पणियां जानने की कोशिश करता था . इस लिहाज़ से मेरे लिए उसे पागल मान लेना असंभव था और यदि संभव था भी तो मैं मानना नहीं चाहता था.
आज पूरे चाय कार्नर पर ग्राहकों के नाम पर बस दो लोग थे ...मैं और वो स्क्रिप्ट रायटर . 'वो' कहना बहुत अजीब लग रहा है इसलिए आगे से मैं उसे रायटर कह कर संबोधित करूंगा पर शब्द के वज़न से आप ये मत भूलिएगा कि वो था तो आखिरकार एक पागल ही .
रायटर अपने चाय के गिलास के उत्तल और अवतल हिस्से के आर पार मुझे झांक रहा था .मुझे इस बात का इल्म तो था लेकिन मैं नहीं चाहता था कि उसे भी इस बात की जानकारी हो और वो आकर मुझे तंग करे . ख़ैर फ़िर भी वो उठा और साधिकार मेरे बगल में आकर बैठ गया .
"पढ़ो इसे" ...उसने हरी पालिथीन से अपने नई स्क्रिप्ट निकाल कर मुझसे कहा .
"क्या है ? "
"अरे स्क्रिप्ट है...इस बार थोड़ा थर्ड फ़ार्म में लिखा है क्योंकि नाटक के फ़र्स्ट और सेकेण्ड फ़ार्म में मुझे वो गहराई नुमायां नहीं होती . शब्दों के बीचों बीच नज़र और दिमाग को कसरत ही ना करनी पड़े तो बात ही क्या ! "
"मुझे तुम्हारी लिखावट समझ मे नहीं आती , तुम ही पढ़ दो "
" लिखावट समझ मे नहीं आती !!! ...फ़िर मेरी बाकी स्क्रिप्ट्स पर तुमने जो प्ले बनाए हैं ...वो कैसे ? "
"तुम्हारी स्क्रिप्ट पर ! नहीं जी ..मैं खुद लिखता हूं या फ़िर बड़े बड़े नाटककार जैसे विजय तेंदुलकर , महेश दत्तानी , महेश अलकुंचवर और बादल सरकार के प्ले उठाता हूं ...नाम सुने होंगे शायद ..."
"हां....तेंदुलकर जी के हर नाटक का केंद्र बिंदु एक सताई हुई औरत होती है , बादल बाबू ज़रूर कुछ तगड़े थे , महेश को मैंने ज्यादा पढ़ा नहीं क्योंकि उसकी सोच पर मुझे पश्चिम की छौंक पसन्द नहीं आती "
मैं अवाक भी था और हैरान भी . उससे ये मेरा दूसरा कन्वर्सेशन ही था लेकिन मैं ये निश्चित नहीं कर पा रहा था कि उमर के अर्ध शतक के उस पार खड़ी वो चीज़ आखिर थी क्या . ख़ैर बीच बीच में वो कुछ ऐसी हरकतें कर जाता था कि मुझे पक्का हो जाता था कि वो चीज़ क्या थी....'पागल' और क्या....क्योंकि वो नाक में उंगली से कुछ खोज- खोद करने के पश्चात उसी उंगली से कान खुजाता और फ़िर उसी उंगली से समोसे का आलू खोद खोद कर खाने लग जाता .
"तुम्हीं पढ़ दो ना यार ...."
"ठीक है, मैं सुना देता हूं पढ़कर .नाटक का शीर्षक है-'स्वर्ग में परमाणु परीक्षण'
"क्या ? "
"स्वर्ग में परमाणु परीक्षण "
"चिगो चिध चिन-चिगो चिध चिन...इन्द्रदेव सावधान ! हमारे खूफ़िया राडार ने पता लगाया है कि काशीराम और मायावती का ब्रेक अप हो गया है . जुलाब की दवाओं की आकस्मिक कमी आ पड़ी है इअलिए स्वर्ग के पोखर में पोखरण करना ज़रूरी हो गया है .चिगो चिध चिन-चिगो चिध चिन !..चित्रगुप्त सावधान ....यमराज के भैंसे से कह दो कि वो पोखर में पानी पीने ना जाए क्योंकि कोबाल्ट के रडिएशन से उसके दिमाग में छेद हो सकता है . "
"अभी सिर्फ़ प्लाट ही लिखा है ..शायद समझ नहीं पा रहे होगे....असल में थर्ड फ़ार्म के कुछ कंस्ट्रेंट्स होते हैं ना.. "
थर्ड फ़ार्म .... ? बाबा जी का घंटा ...क्या था ये ? ऐसा वाहियात इंसान पागल ही हो सकता है .
काश इन्हीं शब्दों में मैं उसे टिप्पणी दे पाया होता फ़िर भी मुझे एक सुरक्षित पालीटिकल जवाब देना पड़ा..."अच्छा है"
"ख़ैर इसे छोड़ो...मैं एक और बात सोच रहा था ..."
अब क्या....!!!
" डू यू थिंक दैट द वैल्यू आफ़ जी वाज़ ९.८१ ऐट द टाइम आफ़ महाभारत ? "
"जी ? "
"येस...'जी' ....ग्रेविटेशनल कांस्टैंट ...यू मस्ट नो ना ..."
"अच्छा...जी...या या...दैट मस्ट बी "
"देन हाउ कम भीम लिफ़्ट अ ट्वेंटी क्विंटल ट्री ? ..आई कैन प्रूव दैट इट वाज़ वैरिएबल.... बिफ़ोर लिफ़्टिंग इट ही यूज्ड टू चेंज इट टू जी बाए हंड्रेड . "
"जी जी.."
"चलो अच्छा चलता हूं .सोमवार को हैदराबाद गेट पर टोपाज़ का ग्यारवां शो होगा , देखने ज़रूर आना , कुछ सीखने को मिलेगा "
"जी ठीक .."
"जी ! ...जी ? ...९.८१ ? "
चार दिन बाद ...हैदराबाद गेट ...
"चिगो चिध चिन- चिगो चिध चिन "
"सावधान सावधान ...
कला के कई प्रकार
ना कोई आकार
फ़िर भी साकार
करने को बूढ़ा कलाकार
तालियां मेरा भोजन
तालियां मेरा आहार
पेट भर तालियां , छोटी मोटी गालियां
बजाओ ताली...
चिगो चिध चिन , चिगो चिध चिन "
थोड़ी बहुत भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी और उसे ये समझने में वक्त नहीं लगा था कि आज फ़िर टोपाज़ का शो करने के लिए प्रोफ़ेसर हल्ला मचा रहा है .उसके इर्द गिर्द जमा होने वाली भीड़ में सिर्फ़ नए लोग ही होते थे क्योंकि वो पिछले तीन महीने से वही नाटक करने के लिए यूनीवर्सिटी के अलग अलग चौराहों पर ढोल लेकर पहुंच जाता था . फ़िर भी भीड़ का एक ख़ास स्वभाव होता है कि वो जमा बिना किसी वज़ह के होती है और तितर बितर किसी ख़ास वज़ह से ही होती है इसलिए वो हमेशा ४०-५० लोगों को इकट्ठा करने में सफ़ल हो जाता था . नए लोग ये जानने के लिए खड़े थे कि ये क्या करने वाला है और पुराने लोग ये जानने के लिए कि ये आज नया क्या करने वाला है .
"मैं हूं लेखक बड़ा अनोखा
मेरा लिक्खा सबसे चोखा
खुद ही लिखता
खुद ही पढ़ता
बड़े शौक से खुदी फ़ाड़ता
मेरी शैली सबसे भिन्न
चिगो चिध चिन्न , चिगो चिध चिन्न
नाटक का नाम है - 'टोपाज़ '
बजाओ ताली ...."
भीड़ जमा होती देख दो यूनीवर्सिटी के गार्ड उसकी ओर बढ़े .
"ए प्रोफ़ेसर, चल भाग यहां से "
"चले आए पोखरण के चौकीदार , देखो क्लाइमैक्स है , तमीज़ से हो जाने दो , चलो तुम भी खड़े हो जाओ वहां ...चिगो चिध चिन ..चिगो चिध चिन "
"अबे भैंचो हटता है कि नहीं "
"बोला ना कि क्लाइमैक्स है नाटक का "
"अबे हां पता है तेरा क्लाइमैक्स ,हर हफ़्ते देखते हैं कि क्लैमैक्स मे कलाकार अपना हांथ टोपाज़ से काट लेता है "
" अरे आज़ कहानी में ट्विस्ट है ...कलाकार क्या करता है कि..."
"अबे हां हां पता है ...चल भाग "
"अरे...कलाकार अपने जेब से टोपाज़ निकालता है ...क्या ? ...टोपाज़ ...और फ़िर टोपाज़ से अपनी कलाई की नस काट लेता है...ये दाहिने हांथ की और ये बांएं हांथ की
फ़िर जनता को जाता है सांप सूंघ
क्या बीच बज़ार हो गया खून ?
जनता बजाती है ज़ोरदार ताली
ज़ोरदार ताली छोटी मोटी गाली
जनता को जाता है सांप सूंघ
क्या बीच बज़ार हो गया खून ?
चिगो चिध चिन चिगो चिध चिन "
इतना कह के प्रोफ़ेसर सांस रोक कर सड़क पर लेट जाता है .
"अबे हां ठीक है ...अब चल भाग यहां से "
एक आध मिनट में भीड़ भी छट जाती है और प्रोफ़ेसर भी उठ खड़ा होता है . अपनी हरी पालीथीन उठाता है और चल देता है .
थोड़ी दूर पर जाकर उसी चाय कार्नर पर जाकर बैठ जाता है .
"साले ने सब चौपट कर दिया , दो मिनट और चल जाने देता तो क्या बिगड़ जाता साले का
, अरे साला जनता को तालियां तो बजाने देता , साला नाटक में ट्विस्ट आना अभी बाकी था ना . लोग आज पक्के से तालियां बजाते ज़ोरदार तालियां ..."
उसके कत्थई स्वेटर की स्लीव्स पर कत्थई रंग और गहरा होकर तेजी से चढ़ने लगता है ..
गहरा भूरा...
गहरा कत्थई..
गहरा लाल-काला....
आज सचमुच नाटक में ट्विस्ट था...
किसी ने ध्यान ही नहीं दिया ...
टोपाज़...